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________________ मम्मीपप्राप्तिको भने ! कि पुढे ओमासेंति' हे भदन्त ! तत् क्षेत्रं सूयौं स्पृष्ठं-स्वस्य तेजसा व्याप्तम् अव. भासयतः किंवा अस्पृष्टं तेजसाऽव्याप्त क्षेत्र मवभासयत इति प्रश्नः, भगवानाह-हे गौतम ! सयौं स्वतेजसा व्याप्तमेव क्षेत्र मवमासरतो नतु स्वतेजसाऽव्याप्तं क्षेत्र मवभासयतः, दीपादि तैजसद्रव्याणां प्रकाशस्य गृहादिद्रव्यस्पर्शपूर्वकमेवावमासकत्वस्व दर्शनात् । ‘एवं आहार; पयाई णेयव्वाई' एवं स्पृष्टपदप्रदर्शितप्रकारेण आहारपदानि चतुर्थोपाङ्गगताप्टाविंशतितमपदे आहारग्रहणविषयकानि द्वाराणि नेव्यानि, तद्यथा-पुट्ठोगाढमणंतर अणुमहआदि विसया णुपुयीय जाव णियमा छदिसिं' स्पृष्टावगाह मनन्तरमणुमहदादि विपवाणुपूर्वी च यावनियमात् पड्दिशम्, प्रथमतोऽत्रमासनाहारादि द्वारेषु स्पृष्टविपयक सूत्रं स्वमनसा प्रकल्प्य तद् सूत्रकार अब संक्षेप से प्रकट करते हैं 'तं भंते कि पुटुं ओभासें ति' हे भदन्त । ये दोनों सूर्य उस क्षेत्र रूप वस्तु को स्पृष्ट करके प्रकाशित करते हैं अर्थात् अपने तेज से उसे व्याप्त करके उसका प्रकाशन करते हैं या अस्पृष्ट करके उसे प्रकाशित करते हैं ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! हे गौतम! वेदोनों सूर्य अपने तेज से व्याप्त हुए ही उस क्षेत्र रूप वस्तुका प्रकाशन करतें हैं अपने तेज से अव्यास हुए क्षेत्ररूपवस्तु का प्रकाशन नहीं करते हैं। यह तो. हम स्पष्ट रूप से देखते हैं कि दीपादिक जो तैजस द्रव्य विशेप है उनका प्रकाश, ग्रहादि द्रव्यों का जो प्रकाश करता है वह उनसे स्पृष्ट होकर ही करता.हे.. अस्पृष्ट होकर नहीं करता है। 'एवं आहारपयाई णेयव्याई स्पृष्टपद प्रदर्शित प्रकार के अनुसार अहारपदों को-चतुर्थ उपाङ्गगत अष्टाविंशतितमपद में आहार ग्रहण विषयक द्वारों को भी समझ लेना चाहिये-जैसे 'पुट्ठोगाढमणंतर अणुमह आदि विप्सयाणुपुवीय जाव नियमा छदिति' अवभासनं आहार आदि द्वारों में स्पृष्ट विषयक सूत्र अपने मन से बनाकर उसका व्याख्यान करना, ४२ वे संक्षेपमा ४८ ४२ छे. 'तं भंते ! कि पुट ओमासे ति' महत! मन्त. સૂર્યો તે ક્ષેત્ર રૂપ વસ્તુને સ્પૃષ્ટ કરીને પ્રકાશિત કરે છે. એટલે કે પિતાના તેજથી તેને વ્યાસ કરીને તેને પ્રકાશમાન કરે છે અથવા અસ્કૃષ્ટ કરીને તેને પ્રકાશિત કરે છે? એના सपासमा प्रभु ४९ छे. 'गोयमा । गौतम ! त भन्न सूर्या पोताना तेथी व्यास થયેલા તે ક્ષેત્રરૂપ વસ્તુનું પ્રકાશન કરે છે પિતાના તેજથી અવ્યાપ્ત થયેલી વસ્તુનું પ્રકાશન કરતા નથી. આ તે અમે સ્પષ્ટ રૂપમાં જોઈ શકીએ તેમ છીએ કે દીપાદિક જે તૈજસ દ્રવ્ય વિશેષ છે, તેમને પ્રકાશ ગુડાદિ દ્રવ્યને જે પ્રકાશિક કરે છે, તે તેમના વડે પૃષ્ટ थाने १ ४रे छ. भYष्ट ४२ नलि. 'एवं आहारपयाई गेयव्वाई' स्पृष्ट ५६-48તિ પ્રકાર મુજબ આહાર પદેને-ચતુર્થ ઉપાંગગત અષ્ટવિંશતિતમ પદમાં આહાર BY विषय दाराने प-सभ वा नये. रेभ 'पुरोगाढमणंतर अणुमहआदि विसयाणुपुब्वी य जाव नियमा छदिसि' समासन माहार पोरे द्वारामा स्पृष्ट विषय
SR No.009347
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages569
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size46 MB
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