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________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ६ दिनरात्रिवृद्धिहा निनिदपणम् कृतनादारभ्य इत्यर्थः 'एगेणं तेसीएर्ग राईदियसपूर्ण' एकेन व्यशीतेन रात्रिन्दिवशतेन - यशीत्यधिकैकरा त्रिन्दिवशतेन 'तिष्णि छाडे एगसद्विभागमुहुत्तसए' त्रीणि पष्टानि एक षष्टिभागमुहूर्त्तशतानि त्रीणि पट् षष्ट्यधिकानि महूत्तैंकषष्टिभागशतानीत्यर्थः ' स्यणि 'खेत्तस्स णिबुद्धेत्ता' रजनी सम्बन्धि क्षेत्रस्य निर्वर्ध्य न्यूनं कृत्वा 'दिवसखेत्तस्स अभिवदेता' दिवसक्षेत्रस्य अभिवदर्थ - वृद्धिं कृत्वा 'चारं चर' चारं गतिं चरति - करोति 'एसणं दोच्चे छम्मासे' एपः खलु अहोरात्रः द्वितीयः षण्मासः उत्तरायणस्य चरमः 'एसणं दोच्चस्स छम्मासंस्स पंजवाणे' एतत् खलु द्वितीयस्य षण्मासस्योत्तरायणरूपस्य पर्यवसानम् 'एसणं आइच्चे संवच्छ रे' एषः खलु आदित्यः संवत्सरः 'एसणं आइच्चस्स संवच्छ रस्स जवसाणे पण्णत्ते' एतदेव आदित्यस्य - आदित्योपलक्षितस्य संवत्सरस्य वर्षस्य पर्यवसानं मज्ञप्तम् - कथितम् इत्यष्टमं दिनरात्रि वृद्धिहानि द्वारं समाप्तम् । सू० ६ ॥ अष्टमं दिनंरात्रिहानिवृद्धिद्वारं निरूप्य नवमं तापक्षेत्रद्वारं निरूपयितुमाह मूलम् - जयाणं भंते ! सूरिए सव्वभंतरं मंडलं उचसंकमित्ता चारं कर के 'एगेणं तेसीएणं राईदिवसणं' १८३ रात दिनों 'तिष्णिछावट्टे एसडी भाग मुहुत्तसए' ३६६ और एक मुहूर्त्त के ६१ भागों तक को 'रयणिखेत्तस्स- ' विद्धेता' रात्रि के क्षेत्र में न्यूनता करता हुआ और 'दिवसखेत्तस्स अभिवता' दिवस के क्षेत्र में वृद्धि करता हुआ सूर्य 'चारं चरइ' अपनी गति करता है । 'एस णं दोच्चे छम्मासे' यह द्वितीय षट् मास है अर्थात् उत्तरायण का चरम मास है । 'एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे' यहीं पर उत्तरायण की परि समाप्ति हो जाती है । 'एस णं आइकचे संच्छरे' यह आदित्य संवत्सर है 'एसणं आहञ्चस्स' संवच्छरस्स पज्जवसाणे पण्णत्ते' और यहां पर आदित्य के संवत्सर की वर्ष की समाप्ति हो जाती है ऐसा कहा गया है । ८ वा वृद्धिहानि द्वार समाप्त ॥ ६ ॥ मंडल पणिहाय' त्यारे सर्व माह्यम उजनी भर्यादा पुरीने 'एगेणं तेसीएणं राईदियसएणं' १८३ रात - द्विवसोभां 'तिष्णि छावट्टे एगसट्ठीभागमुहुत्तसए' ३६६ भने भुहूर्तना ११ 'भागेो 'सुधीनी ‘रयणिखेत्तस्स णिबुद्धेत्ता' शतना क्षेत्रमां न्यूनता ठरतो भने 'दिवसखेत्तस्स अभिवद्धेत्ता' हिवसना क्षेत्रमां वृद्धि उरतो मा सूर्य 'चार' चरइ' गति अरे छे, 'एसणं' दोच्चे छम्मासे' या द्वितीय षटू भासं छे. भेटले उत्तरायणुन! यरभ भास छे. 'एस णं दो चरस छम्मासस्स पज्जवसाणे' सही उत्तरायणुनी परिसभाप्ति था लय छे. ... 'एस णं, आइच्चे संवच्छरे' मा साहित्य संवत्सर छे. .. एस प्रणं. आइचचस्स स वच्छरस्स पज्जवसाणे पण्णत्ते' अने अहीं साहित्यना संवत्सरनीवर्षानी -सभाप्ति था जय हे. मा प्रभावामां आयु छे. અષ્ટમ્ વૃદ્ધિ-હાનિદ્વાર સમાપ્ત
SR No.009347
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages569
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size46 MB
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