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सुबोधिनी टीका देवकृतं समवसणभूमिसमाज'नादिकम् कुलं वा सभां वा प्रपा वा आराम वा उद्यानं वा अत्तरितमचपलमसंभ्रान्तं निरन्तर सुनिपुणं सर्वतः समन्तान सम्माजयेत् एवमेव तेऽपि मर्या. भ प देवस्य आभियोगिका देवाः संवर्तकवातान विकुर्वन्ति, विकृत्य श्रमः णस्य भगवतो महावीरस्य सर्वतः समन्ताव योजनपरिमण्डलं यत किश्चित तृणं वा पत्र वा तथैव सर्वमाध्याधूय एकान्ते एडयन्नि एडयित्वा लिममेव अब वह एक बड़ी शलाकामयी संमार्जनी-(बुहारी) को अथवा दण्डयुक बुहारी को, या वंशशलाका निर्मित बुहारी को लेकर राजाङ्गण को या उसके अन्तःपुर को (देवकुलं वा, सभं वा पवं वा आरामं वा उजाणचा अतुरियमचवल. मसभाते) या देवकुल को, या परिषद् को, या प्रपा को, (पानीशाला) या आराम को या उद्यान को त्वरारहित होकर, चपलता रहित होकर, एवं भ्रमरहित होकर (निरंतरं सुनिउणं) निरन्तर अच्छी तरह से (सन्चो समंना संपमज्जजा) मथ तरफ से प्रमार्जित करता है (एचामेव तेऽवि रियाभस्स देवस्स आभियो गिया देवा संवट्टयवाए विउव्वंति) उसी तरह से मूर्याभदेव के उन अभियोगिक देवीने संवर्तक वायु की विकृषणा की (विउवित्ता समणम्स भगवओ महाविरस्स सचओ समंता जोयणपरिमंडलं ज किंचि तणं वा पत्तं वा, तहेव सव्वं आहुणीय२ एगते एडेंति) विकुर्वणा करके फिर उन्होंने श्रम भगवान महावीर के पास के योजनपरिमितपरिमण्डल रूप भूभाग में जो कुछ भी घास फूस था, पत्ते आदि थे, उन सबको उसी तरह से उडा उडा कर किसी एकान्त स्थान में प्रक्षिकर दिया (एडित्ता खियामेव એ તે એક મોટી શલાકાવાળી સંમાર્જના (સાવરણી) ને કે દંડ યુકત સાવરણને કે વંશશલાકાઓથી બનાવવામાં આવેલી ઝાડુને લઈને રાજગણન કે રાજાના રણવારાને (देवकुलं वा, सभंवा पर्व वा आरामं वा उजाण वा अतुरियामचवलम भंते) કે, દેવકુળને કે પરિષદુને કે પ્રપાને કે આ રામને કે ઉદ્યાનને ત્વરરહિત થઈને એટલે
शांतिथी, यता १२ ने अभडित थने (निरंतर सुनिउग) सतत सारी २ (मनओ समंता सपमज्जेजा) यारे माथी साईसच ४२ छ. (एवामेव ने ऽवि सूरियाभस्म देवस्स आभियोगिया देवा संवयवाए विउन्नति) ते प्रमाणु
सूर्याभवना ते मालियोगि वामे संवत' वायुनी वि । . (विउवित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स सबओ समता जोयणपरिमंडल' ज किचि तणं वा पत्तं वा, तहेव सवं आहुणीय २ गते एडे ति) विनु । કરીને પછી તેમણે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની પાસેના એક જન જેટલા પરિમે ડળ રૂપ ભૂભાગમાં જે કંઈ પણ ઘાસ-ચાહત, પાંદડાં વગેરે હતાં, તે ને