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________________ सुयोधिना का सु. ९० सूर्यभिदेवस्य कार्यक्रमवर्णनम् ६३१ निहत्य त्रित्वमृद्धनि घरणितले निपातयति निपात्य ईषत् प्रत्युन्नः मयति, मत्युग्नमय्य करतलपरिगृहीत' शिर आवर्त्त मतके अञ्जलिं कृत्वा एवम् अवादात् ॥ मु० ९२ ॥ लह टीका -- 'तरण" इत्यादि । ततः= तदनु खलु तं सूर्य देव चतस्रश्च सामानिकसाहस्रयः= चतुस्सहस्रमख्यकाः सामानिकदेवाः, यावत - यावत्पदेन - ' चतस्रः अग्रम ुगः सपरिवाराः, तिस्रः परिषदः सप्त अनिकाधिपतयः इति संग्राह्यम्, तथा-घोडश आत्मरक्षसाहरूयः = घोडशसहस्रसंख्यकाः आत्मरक्षका देवाः, तथा अन्ये च बहवः सूर्याभविमानवासिनी देवाथ, देव्यच, अरमेक के== केचित् देवाः उत्पलहस्तगताः यावत् - शतसहस्रपत्र हस्तगताः शतपत्र स्रपत्रकमलहस्तगताः सन्तः सूर्याभ देव पृष्ठतः समनुगच्छन्ति । ततः खलु तं मर्या देवत्र आभियोगिका देवाथ देव्यश्च अत्येक के = केचित् कलश हस्तगताः यावत - - केचित् धूपकटुच्छुक हस्तगताः हृष्टतुष्ट = यावत = हृष्टतुष्ट चिन्तनन्दिनाः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसहृदयाः सूर्याभ ऐसे स्तुतिकाव्यों से स्तुति की (संधुणित्ता सत्तपयाइ पचासकइ ) स्तुति करके फिर वह सात आठ पैर पीछे हटा - (पचोसकित्ता वामं जाणु अचेइ, अचित्ता दाहिण जणु धरणितलसि निहुँ तिक्खुत्तो मुद्धा धरणितलंसि निवाडे) पीछे हटकर उसने वामजानु को पीछे लिया और दक्षिण जानु को जमीन पर रक्खा, इस प्रकार करके फिर उसने तीनवार मस्तकको भूमि पर लगाया - झुकाया (निवाडित्ता इसि पच्चुण्ण मह) झुकाकर फिर थोडा उसे उठाया (पच्चुभिता करयल परिगहियं सिरमावनं मत्थए अंजलि कट्टु एव वयासी) उठाकर दोनों हाथों की अंजलि बनाकर और उसे शिर पर से घुमाकर इस प्रकार कहा छंउद्दिश्य महावृत्तवाणा स्तुतिअव्योथी स्तुति उरी, (संथुणित्ता सतहृपयाइ' पञ्च्चोसक्कर) स्तुति नेपछी ते सात माह रजसा याही आल्या. ( पच्चीस कित्ता चाम जाणु अचे, अचित्ता दाहिणं जाणु धरणितलंस निह तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलसि निवाडेह) पाही उटीने तेथे डाणा बूंटाने पाही सांधा અને જમણા ઘૂંટણને પૃથ્વી પર મૂકયો. આ પ્રમાણે કરીને તેણે ત્રણવાર માથું ભૂમિपरसगड (निवाडित्ता, इसि पच्चुण्णम इ) सगाडीने च्छी भाथु थोडु' उपर उठाय (पच्चुण मित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कडे एवं क्यासी) ત્યારપછી તેણે બન્ને હાથેાની અંજલિ મનાવી અને તેને મસ્તક પર ફેરવી આ પ્રમાણે કહ્યુ. :
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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