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________________ सुबोधिनी टीका सु. ९२ सूर्याभदेवस्य कार्यक्रमवर्णनम् ६२९ , -वास चूर्णारोहणं वर्गारोहणं चागेहणम् आभरणारोहणं करोति कृत्वा आसक्तावसक्तविपुलवृत्तपत्र स्थित माल्यदामकलाप कमेति कृत्या कचग्रहगृहीनकरतलमभ्रष्टचिपमुक्तेन दशार्द्धवर्णेन कुमुमेन मुक्तपुष्पवनोपचारकलित करोति कृत्वा जिनप्रतिमानां पुरतः अच्छे रजतमः अच्छासावन्दुलै: अष्टाष्ट मङ्गलानि आलिखति, तद्यथा-खग्तिकं यावद् दर्पणम् । तदनन्तर च जुयलाई नियंसेइ) पोछकर सरस गाशीपचन्दन से उनके शरीर को चर्चित किया. चर्चित करके फिर उसने उस निपतिमाओं को अम्वण्डित ऐसे देवयुगल को पहिराया. (नेयभित्ता पुप्फारुण मल्लारुण गवारुण चुणारुणारुणं वत्पाखहां आमरणारुणं करे३) पहिरा करके फिर उसने उन पर पुल चढाये. मालाएँ चढाई, गंध चढ़ाया. चूर्ण' - क्षेप चढाया, त्र चढाये, एवं आभरण चढाये. (कविता] आमोसन विलग्वारियमलदामकलाप करेs) यह सब करके फिर उसने ऊपर से नीचेतक लटकते हुए एवं गोल ऐसे लम्बे माल्यदामकलाप को -मालाओं के समूह को उन जिनमतिमाओं के समक्ष किया (करिता कयरगह गहिय करपविमुक्रेण दसणेण कुसुण मुकपुप्फ ु जोवयारकलिय करेइ) चढ़ा करके केशों को ग्रहण करने की तरह गृहीत हुए, तथा करतल से छूटकर विकीर्ण (विश्व) हुए ऐसे पंचवर्ण के कुसुमों से अग्रथित पुष्पों के समूह से त उपचार से युक्त करते जैसे बना वैसे उस स्थान को किया. (करिता जिनपरिमाण' पुरओ अच्छेहिं, सप्णेहिं रचयामयेहिं अच्छ रमात दुळेहि अगले आलिइ) इस प्रकार करके फिर उसने उन जि. लिंपs, अणुलिपित्ता पिडिमा आइमाई देवसजुयलाई नियंसेइ ) सूहीने સરસ ગાડી ચંદનની ને પ્રતિમાએને ચર્ચિત કરી. ર્ચિત કરીને પછી તેણે તે प्रतिभागाने मंडित देवदृश्य युगस पडेराव्यां ( नियंसित्ता पुष्कारुणं गंधाचुगाणं मन्नारुहणं, वत्थामहणं, आभरणारुहणं करेइ) पडेरावीने पछी तेथे प्रतिभाओ पर चुप्पो यदाव्यां, भाषाओ चडेरावी, गंध यूर्श, वर्षा - वासक्षेत्र વસો અને આભરણો અર્પિત કર્યાં. ( करिता आसतोस त्तनिग्धा रियमल्लदामकलाप करेइ ) आ मधु चतावने पछी तेथे उपरथी नीचे सुधी લટકતા, ગાળ અને લાંબે માલ્કદામકલાપ-માળાઓના સમૂહ તે પ્રતિમાઓને પહેરાવ્યા. (करिना कयगाहगहियरयल भविषमुक्केणं दद्रवणेणं कुसुमेणं मुक्क पुष्पु जोवयारकलिय करेई) त्यास्च्छी शग्रड उरवानी प्रेम श्रद्धालु उरायैक्षां હાથમાંથી છૂટીને વિકી થયેલાં એવાં પાંચનાં પુષ્પોથી અર્થાથત પુષ્પસમૂહાથીते स्थानने सुशोषित मुं (करिता जिनपडिमाणं पुरओ अच्छे सहेहि, रययामयेहि, अच्छरसातं दुलेहि अमंगले आलिहइ) याप्रमाणे उरीने तेथे 1
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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