SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 590
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५७६ -- राप्रश्नीयस्ये प्क्रामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य तया उत्कृष्टया चपलया यावत् तिर्यगसंख्ययानां यावद् व्यतिव्रजन् व्यनित्रजन यौव क्षीरोदकम मुद्रः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य क्षीरोदक गृह्णन्ति, यानि तत्रोपलानि तानि गृह्णन्ति यावत् शतसहस्रपत्राणि गृह्णन्ति, गृहीना र त्रैव पुष्करीद का बास्तव उपागच्छन्ति, उपागत्य पुष्करोदक गृह्णन्ति गृहीत्वा यानि नरोत्पलानि शतसहमपत्राणि तानि यौवद् गृह्णन्ति, गृहीत्वा यत्रैव समयक्षेत्र यत्रेच भरतैरवतानि वर्षाणि य.व मागधवरदामयाभायो विमाणाओ पांडनिखमंति,पडिनिग्नमित्ता ताए उकिटाए चचलाए जात्र तिरियनसंखेजाण जाव बीइवयमाणे वीइवयमाणे जेणेव खीरोदयसमुहे तेणेव उबागच्छंति) लेकर वे उस मूभि विमान से बाहर निकले और निकल. कर उस उत्कृष्ट चपलगति से यातुतिर्यग्रलोक में असंख्यात योजनप्रमाण क्षेत्र को उल्लङ्घन करते२ जहां क्ष रोदधिसमुद्र था वहां पर आये (उवाग. च्छिन्ता खीरोयगं गिहति) वहां आकर के उन्होंने क्षीरोदकको भरा (जावसयसहस्सपत्ताई ताई जाव गिव्हंनि) यावत् शतसहस्रपत्रों को-शतसहस्रः पत्ते वाले कमलों को लिया (गिण्डित्ता जेणेव पुकवरोदए समुद्दे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता पुकवरोदयं गेहंति गिहित्ता जाइ तत्थुप्पलाई सयसहस्सपत्ताई, ताई जाव रिण्ड ति) लेकर फिर वे जहां पुष्करोदक समुद्र था वहां पर आये वहां आकर उन्होंने पुष्करोदक को भरा, भरकर फिर वहां जितने उत्पल कमल शतसहस्रपत्र थे उन सबको याक्त् लिया (गिण्डित्ताजेणेव समयखेत्ते जेणेव भरहेरवयाइ. वासाई जेणेव मागहवरदामपभासाई ali. (गिम्हिता मरियाभाओ विमाणाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमिना ताए उक्खिोए चलाए ‘जात्र तिरियमसंखेज्जाण जाव वीहवयमाणे वीइवयमाणे जेणेव खीरोदयसमुद्दे तेणेव उवागच्छति) धन तेसो त सूर्याभવિમાનમાંથી બહાર નિકળ્યા અને નીકળીને તે પિતાની ઉત્કૃષ્ટ ચપલ ગતિથી યાવત્ તિર્યગલોકમાં અસંખ્યાતજન પ્રમાણ ક્ષેત્રનું ઉલ્લંઘન કરતાં કરતાં જયા ક્ષીરદધિ समुद्र तो त्यां माव्या. (उवाच्छित्ता खोरोयगं गिण्हति)त्यां पांथान भणे क्षाश (El२०४६) लघु . (जाव सयसहस्सपनाई ताई जाव गिहति) यावत् शतस२पत्रोवा! भगाने दीi, (गि हित्ता जेणेव पुक्खरोदए समुद्दे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता पुक्खरोदयं गेण्डति, गिण्डित्ता जाई तत्थुप्पलाई सयसहस्सपत्ताई ताई जा गिण्हति) सन पछी ते ज्या पुरो४४ समुद्र હતો ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તેમણે પુષ્કરેદક ભર્યું. ભરીને પછી ત્યાં જેટલાં શતसोपत्र ५८ हुतi ते पयां यावत् स दीघi. (गिण्डित्ता जेणेव समय
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy