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________________ सुबोधिना टीका र ८५ सामानिकदेवकथनेन सूर्याभस्य तत्तकार्य करणम् ५६७ छाया-तत-ग्वलु स सूर्याभो देवस्तेपां सामानिकपरिषदुपपन्नकानां देवानाम् अन्ति के एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य हृस्तृष्ट-यावत-हृदयः शयनीयात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय उपपातसभायाः पौरस्त्येन द्वारेण निर्गच्छति, निर्गत्य यौव इदस्तत्रैव, उपागच्छति, उपागत्य हृदम् अतुप्रदक्षिणी कुर्वन पौरस्त्येन तोरणेन अनुप्रविशति, अनुपविश्य पौरस्त्येन त्रिसोपानप्रतिरूप केण प्रत्यवरोहति, प्रत्यवाय 'तए ण मृरियाभे देवे' इत्यादि। सूत्रार्थ-(तए ण से मरियाभे देवे तेसिं सामाणियपरिसोववन्नगाण देवाण अंतिए एयमर्स्ट लोचा) इसके बाद वह मूर्याभदेव उन मामानिक परिषदुपपन्न देवों से इस प्रकार के अर्थ को सुनकर (निसम्म, हतुह जाव हियए सयणिज्जाओ अब्क्षु?) और उसे हृदय में धारण कर बडा ही प्रसन्न एवं संतुष्टचित्त हुआ और शयनीय से उठा . (अनुहित्ता उपवाय. सभाओ पुरथिमिल्लेण दारेण निग्गच्छइ) और उठकर वह उपपात सभा के पौरस्त्यद्वार से-पूर्वदरवाजे से निकला (निग्गच्छिता जेणेव हरए तेणेव उवागच्छइ) निकल कर वहां गया जहाँ हद था (उवागच्छित्ता हरय अणुपयाहिणी करेमाणे २ पुरथिमिल्लेण तोरणेण अणुपविसइ) वहां जाकर हून की बार बार प्रदक्षिणा की और फिर वह पूर्व तोरण से होकर उसमें प्रविष्ट हुआ (अणुपविसित्ता पुरथिमिलेण तिसोवाणपडिरूवएण पच्चो. रुहइ) प्रविष्ट होकर वह पूर्व दिग्दर्ती त्रिसोपानप्रतिरूप से होकर उसमें प्रवेश 'तएण' से सरियाभे देवे' ! इत्यादि । सूत्राथ-(लएण से सरियाभे देवे तेसिं सामाणियपरिसाववन्नगा ण' देवाण अंतिए एयम सोचा) त्या२ पछी ते सूर्याभव ते सामा४ि पा२षटुपपन्न वाथी २मा प्रमाणे पात समगीन (निसम्म, हतु? जाव हियए सय. णिज्जाओ अमुई) मने तेन यमा धारण ४शन सूप प्रसन्न तभ०१ सता वित्त थयो भने शयनीय ५२थी मो थयो. (अन्सुटिना उववायसभाओ पुरत्थि मिल्लेण दारेण निगच्छई ) मने से थने ते पपात समाना पौरस्त्यद्वारथी -14 ॥ त२५न!-द्वारथी-नीज्यो. (निग्गच्छित्ता जेणेव हरए । तेणेव उवागच्छ ) भने यi ४६ (धरी) त्यो यो. (उचोगच्छित्ता हरय अणुपयाहिणी करेमाणे २ पुरथिमिल्लेण तोरणेण. अणुपविसंड) ત્યાં જઈને તેણે હૃદની વારંવાર પ્રદક્ષિણા કરી અને ત્યારપછી તે પૂર્વ તરણ તરફથી तभा प्रविण थयो. ( अणुपविसित्ता पुरथिमिल्लेण तिसोवाणपडिरूवएण पञ्चोरुहइ) प्रविष्ट थने ते पूाि त२३नी त्रिसापान प्रति३५ 8५२ थने तमा
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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