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राजप्रश्नायम अवितश्रमेतद् भदन्त ! असंदिग्धमेतद् भदन्त ! इष्टमेतद् भदन्त ! प्रतीष्टमेतद् भदन्त ! इष्टप्रतिष्टमेतद् भदन्त! तद् यथैतत् यूयं वदय' एवमप्रतिकूलयन पर्यु पास्ते २ । मानसिक्या-महासंवेगं जनयित्वो तीवधर्मानुगगरक्तः पर्यु गम्ते, एषां व्याख्या औपपातिकमत्रस्य चतुःपञ्चाशत्तम.मत्रस्य मत्कृतपीयूप कर्षिणीटीकातोऽवलेया ।। मू० २९॥ ___ मूलम्-तएणं समणे भगवं महावीरे सुरियाभस्त देवस्स तीसे य सहइमहालयाए परिसाए जाव धम्म परिकहेइ परिसा जामेव दिसि पोउन्सूया तामेव दिसि पडिगया ॥ सू० ३०॥ .... ......छाया--ततः खलु श्रमणो भगवान महावीरः सूर्याभस्य देवस्य तस्याश्च महाऽतिमहत्याः परिपदः यावत् धर्म परिकथयति परिषद् यामेव दिशं प्रादुर्मूता तामेव दिशं प्रतिगता ॥ मू० ३० ॥ देश में जो धर्म का व्याख्यान किया उनके प्रति 'हे भदना यह ऐसा ही है, हे भदन्त ! यह सर्वथा अस्तिथ है, हे भदन्त! यह असंदिग्ध है, हे भदन्त ! यह इष्ट है हे भदन्त ! यह प्रतीष्ट है, हे भदन्त ! यह इष्ट प्रतीष्ट दोनों रूप है-जैसा आप कह रहे हैं इस तरह अनुकूलता से सहित होकर उनके वचनों की सराहना यह वाचिकी पर्युपासना है। अपने में महांसंवेगमात्र को उत्पन्न करके तोत्रधर्मानुराग से रक्त होना इसका नाम मानसिकी पर्युपासना है। इन पदों की व्याख्या औपपातिक सूत्र के ५४वं मूत्र
की पीयुषवर्पिणी टीका में मने की है सो वहां से जानना चाहिये । स. २९ । । ... तएणं समणे भगवं महावीरे' इत्यादि।.. ..... सूत्रार्थ -(तएणं) इसके बाद (समणे भगवं महावीरे) श्रमण भगवान या गे छ, महन्त ! मा ते छह महत! मा सथा अवित छ.
महत! या ससहिग्य छ , मत ! २ ८ छ. है. मत! मा प्रतीष्ट छ, हे महत! मा ४५८प्रती ट न. ३५ छ: 1५ म आज्ञा ४२ छतेभ छ 'मा પ્રમાણે અનુકૂળતા સહિત થઈને તેમના વચને વખાણવાં તે વાચિકી પર્ય પાસના છે. પોતાનામાં મહાસંવેગભાવને ઉત્પન્ન કરીને તીવ્ર ધર્માનુરાગથીરકત થવું તે માનसिटी पयुपासना छ. मा. सर्व पहानी व्याया : मौ५पाति सूत्रना: ५४मा - सूत्रनी पिपलिया टीम में वापी छ, सासुगामे त्यांची ती दे लेयः ।। २. २८ ॥
तिएणं समणे भगवं महावीरे' इत्याति । सूत्रार्थ-(न एणं) त्यार पछी (समणे भगवं महावीरे) श्रम वान महावार