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________________ ५५० प्रापनासूत्र लभेव ! गौतम ! नायमर्थः समर्थः, अन्तक्रियां पुनः कुर्यात्, धूमप्रभापृथिवी नायिका रूल पृच्छा, गौतम ! नायमर्थः समर्थः, सर्वविरतिं पुनर्लभेत, तमःप्रमापृथिवी पृच्छा, विरत्यविरतिपुनर्लभेत, अधः सप्तमपृथिवी पृच्छा, गौतम ! नायमर्थः सपर्यः, सम्यक्त्वं पुनर्लभेत,असुरकुमा रस्य पृच्छा, नायमर्थः समर्थः, अन्तक्रियां पुनः कुर्यात्, एवं निरन्तरं यावद् अप्कायिकः, तेजस्कायिकः खलु भदन्त ! तेजस्कायिकेभ्योऽनन्तरप्नुवृत्त्य उपपधेत नीर्थकरत्वं लभेत ? (गोयसा ! जो इणटे समठे) गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं (अंतकिरियं पुण करेजा) मगर अन्तक्रिया करता है। (धूमप्पभापुढवीनेरइए णं पुच्छा) धूमप्रभा पृथ्वी के नारक के विषय में प्रश्न ? (गोयमा ! णो इणढे समडे) गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं (सव्वविरई पुण ल भेजा) किन्तु सर्गविरति प्राप्त करता है । (तमप्पभापुढवी पुच्छा ?) तमाममा पृथ्वी संबंधी प्रश्न ? (विश्या चिरई पुण लभेजा) चिरता विरति को पाता है (अहे सत्तमा पुढची पुच्छा ?) अधः सप्तमी पृथ्वी संबंधी प्रश्न ? (गोयमा ! जो इणटूठे सम्ढे) गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं (सम्मतं पुण लभेजा) सम्यक्त्व तो प्राप्त कर सकता है ___ (असुरकुमारस्स पुच्छा) असुरकुमार की पृच्छा ? (जो इणढे समटूठे) यह अर्थ समर्थ नहीं (अंतकिरियं पुण करेजा) किन्तु अन्तक्रिया करता है (एवं निरंतरं जाव आउकाइए) इस प्रकार निरन्तर अप्काइक तक। (लेउकाहए णं भंते ! तेउझाइएहिनो) हे भगवन ! तेजस्काइधिक तेजस्कायिकों से (अणंतरं उव्यद्वित्ता) अनन्तर उद्वर्तन करके (उवधज्जेजा) उत्पन्न मा म समय नथी (अंत किरियं पुण करेज्जा) पएy rasil ४२ छे. (धूमप्पभा पुढवी नेरइएणं पुच्छा ) धूमप्रमा पृथ्वीना ना२॥ विषयमा प्रश्न १ (गोयमा । णो इणठे समठे) 3 गौतम ! २५ मथ समय नथी (सव्वविरई पुण लभेज्जा) પરંતુ સર્વ વિરતિ પ્રાપ્ત કરે છે (तमप्पभा पुढवी पुच्छा ?) तममा पृथ्वी संधी प्रश्न ? (विरपाविरइं पुण लभेज्जा) विरता वि२तीने पामे छे, (अहे सत्तमा पुढवी पुच्छा ?) म सप्तमी पृथ्वी सधी प्रश्न १ (गोयमा ! णो इणठे समठे) गौतम ! RAE BR समय नयी (सम्मत्त पुण लभेज्जा) सभ्यत्वन ता 1 ४२ हे. (असुरकुमारस्स पुच्छा !) असुरशुभ २नी छ। १ (गोयमा ! णो इणद्वे सममा मथ' समर्थ नथी (अनकिरियं पुण करेज्जा) ५२न्तु मन्तध्या ४२ छ (एवं निरंतरं जाव आउ फाइए) से प्र४ारे निरन्तर अयि सुधी समर (तेउकाइएणं भंते | तेउकाइएहितो) है भगवन् ! त य तायियी (अतरं उध्वहिज्जा) मनन्तर द्वन ४श (उववज्जेज्जा) 64न्न थाय छ (तित्थगरत्तं लभेजा।)
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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