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प्रधापना ५२८ वनस्पतिकायिकोऽपि भणितव्यः, तेजरकायिकः खलु भदन्त ! नेजस्कायिकेभ्योऽनन्तरमुदवृत्त्य नैरयिकेषु उपपधेत ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः, एकम् असु कुपारेवपि, यावत् स्तनितकुमारेषु, पृथिवीको यिकालायिकवायुका यियतेजस्कायिक वनस्पतिकाविक हीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियेषु अस्त्येक उपपघेत, अस्त्येको नोपर येत, यः खलु भदात ! उप घेत स खलु केवलिपज्ञप्तं धर्म लभेत श्रवणतया ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः, तेजस्कायिकः खल भदन्त ! ते नस्कारिकेश्कोऽनन्तरवृत्त्य एश्वेन्द्रिपतिर्यग्योतिके पु उपपोत ? गौतम ! अस्त्येक उपपोत, अस्त्येको नोपपोत, यः खलु भवन्त ! उपपद्येत स रूलु केवलिप्रज्ञप्तं भी कहना चाहिए
(तेउक्काइए णं भंते ! तेउकाइएहितो अणंतरं उन्धहिता नेरएस्तु उपचजे. जा?) हे भगवन् ! तेजर कायिक तेजस्कायिकों से अनन्तर उद्वर्तन करके नारकों में उत्पन्न होतो है ? (गोयना ! णो इण सट्टे) हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं (एवं असुरकुमारेसु वि) इसी प्रकार असुरखुमारों में भी (जाव श्रणियकुमारेसु) यावत् स्तनितकुमारों में (पुढधोकाइय-आउकायदाउ-तेउकाइय-वणप्फडका. इय वेदंदिय-तेदिय-चउरिदिएसु) पृथ्वीज्ञापिक, अप्कारिक, तेजस्कायिक, वन स्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों में (अत्थेगाइए उसज्जेज्जा, अत्थेगइए णो उववज्जेज्जा) सोई उत्पन्न होता है, कोई नहीं उत्पन्न होता
(जे णं भंते ! उववज्जेज्जा) हे भगवन् ! जो उत्पन्न होता है (से णं केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्जा सघणयाए ?) वह क्या केवलिप्ररूपित धर्म का श्रवण प्राप्त करता है ? (गोयमा! णो इणटे लरहे) हे गीतब! यह अर्थ समर्थ नहीं, (तेउक्काइए णं अंते ! तेक्काइएहितो) हे भगवन् ! तेजस्कायिक तेजस्कायिकों से (अणंतरं उव्वहिता) अनन्तर उद्वर्तन करके (पचिंदियतिरिक्ख વનસ્પતિકાયિક પણ કહેવા જોઇએ.
(तेउक्काइएणं भंते ! उक्काइएहितो अणंतर उच्चद्वित्ता तेरइएसु उववज्जेज्जा?) 3 ભગવન તેજસ્ક યિક, તેજસ્કાવિકેથી અનન્તર ઉદ્વર્તન કરીને નારકોમાં ઉત્પન્ન થાય છે? (गोयमा । णो इणद्वे समढे) 3 गौतम ! 241 अथ समथ नथी (एवं असुरकुमारेसु वि) मेरी
ने असु२४भारामा ५५(जाव थणियकुमारेसु) यावत् स्तनितभामा (पुढवीकाइय-- आउकाइयवाउ-तेउकाइय वण'फइकाइय वेइंदिय - तेइंदिय-चउरिदिएसु) पृथ्वी ४॥43, 4 48, ते य, वनस्पतिय, दीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, यतुरन्द्रय वामi (अत्थेगइए उववउजेज्जा, अत्येगइए णो उबवज्जेज्जा) लगवन् । 5 Guन यार छ भने आ5 उत्पन्न नयी यता (जे णं उत्रवज्जेज्जा) 2 अत्पन्न थाय छे (सेणं केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्जा मवणयाए ?) ते शु क्षी ५३पित मनु श्रवY uva ४२ छ ? (गोरमा ! णो इग समढे) हे गी14 1 21 2Aथ समय नथी (तेउकाइएणं भते । तेउकाइएहितो) 3 भगवन ! यिीथी (अणंतरं उच्चट्टित्ता) मनन्त२ वर्तन शन (पंचिंदिय तिरिक्ख