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________________ प्रबोधिनी टीका पद १८ सू० १४ भाषाद्वारनिरूपणम् ४५९ अपर्याप्तः खलु पृच्छा, गौतम ! जघन्येन उत्कृष्टेन भन्तर्मुहूर्तम्, नो पर्याप्तको नो अपर्याप्तकः खलु पृच्छा, गौतम ! सादि होडपर्यनतः, द्वारम् १७, सूक्ष्मः खलु भदन्त ! इति पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टेन असंख्येय पृथिवी कालः, बादरः खलु पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टेन असंख्येयं कालं (पज्जतए णं पुच्छा ? पर्यास संबंधी प्रश्न ? (गोयमा ! जहणेणं अतोमुद्दत्तं) हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक (उक्कोसेर्ण सागरोवमस्यपुहतं साइरेगं ) reate कुछ अधिक सौ सागरोपम पृथक्त्व तक (अपज्जत्तए णं पुच्छा १) अप. यस संबंधी प्रश्न ! ( गोयमा ! जहणेणं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं) हे गौतम! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (नो पज्जत्तए नो अपज्जत्तए णं पुच्छा ?) नोपर्याप्त नोअपर्याप्त संबंधी प्रश्न ! (गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए) हे गौतम! सादि अपर्यवसित (द्वार १७) (सुमे णं भंते! सुमित्ति पुच्छा ?) हे भगवन् ! सूक्ष्म जीव कितने काल तक सूक्ष्मपनेमें रहता है, ऐसा प्रश्न (गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं) हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तक (उनको सेणं पुढविकालो) उत्कृष्ट पृथ्वी काल पर्यन्त (बादरे णं पुच्छा ?) बादर जीव कितने काल तक बादरपनेमें रहता है, ऐसा प्रश्न (गोधमा ! जहणेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं) हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक, उत्कृष्ट असंख्यात काल तक (जाव खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइ भाग) यावत् क्षेत्र से अंगुल के असंख्यातवे भाग ன் (पज्जत्तए णं पुच्छा ?) पर्याप्त सम्बन्धी प्रश्न ? (गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं) गौतम ! धन्य अन्तर्मुहूर्त सुधी मने (उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं ट કાંઇક અધિક સે સાગરાપમ પૃથકત્વ સુધી. ( अपज्जत्तएणं पुच्छा ?) अपर्याप्त संबंधी प्रश्न ? (गोयमा । जहणेणं उक्कोसेर्ण अंतोमुहुत्तं) हे गौतम! धन्य भने अष्ट अन्तर्मुहूर्त सुधी. (नो पज्जत्तर नो अपज्जत्तएणं पुच्छा ?) नापर्याप्त नाअपर्याप्त समन्धी प्रश्न १ (गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए) हे गौतम ! साही अपर्यवसित. (द्वार १७) (सुहुमेणं भंते | सुहुमेत्ति पुच्छा ?) हे भगवन् ! सूक्ष्म व उसा आज सुधी सूक्ष्म पशुभां रहे छे. येवे। प्रश्न ? (गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं) हे गौतम | धन्य अन्तर्मुहूर्त सुधी (उक्कोसेणं पुढविकालो) उत्कृष्ट पृथ्वीभास सुधी. (बादरेणं पुच्छा ?) बाहर लव टसा समय सुधी माहरा रहे है. सेवा प्रश्न ? (गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं) हे गौतम! धन्य अन्तर्मुद्धित सुधी, उत्कृष्ट असभ्याता सुधी (जाव खेचओ अंगुलस्स असंखेज्जइ भाग) यावत् क्षेत्री અગુલના અસંખ્યાતમા ભગ
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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