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________________ प्रमेयषोधिनी टीका पद १७ सू० १६ लेश्यापरिणमननिरूपणम् २१७ प्रकृत मुए संहरनाह-से देणटेणं एवं बुच्चइ-कण्हलेस्सा नीर लेस्सं जाव सुक्कलेस्सं पप्पता रूवत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणपइ' तत्-अथ तेनार्थेन एवम्-उक्तरीत्या उच्यते यत् कृष्णलेश्या नीललेश्यां यावत् कापोतलेश्यां तेजोलेश्यां पद्मलेश्यां शुक्ललेश्यां प्राप्य तद्पतयां तवर्णतया तद्गन्धतया तद्रसनया तत्पर्शतया भूयो भूयः परिणमतीति, अत्रेदं वोध्यम्यथा वैडूर्यमणिरेक एव तत्तदुपाधि द्रव्यसम्एकात् तद्रूपतया परिणमति तथैव तान्यपि कृष्णलेल्या योग्यानि द्रव्याणि तत्तन्नीलादिलेश्या योग्य व्यसम्पर्कात तत्तद्रूपतया परिणमन्ति इत्येतावताऽशेन दृष्टान्तो नतु स्वस्वरूपापरित्यागाधंशान्तरेणाऽपि, तिर्यग्योनिकानां मनुष्याणाञ्च लेश्याद्रव्याणाम् सामस्स्पेन तद्रूपतया परिणमनाभ्युपगमात्, अन्यथा नैरयिकदेववृत्तिलेश्या द्रव्याणामिव तिर्यग्योनिक्रमनुष्याणामपि लेश्याद्रव्याणां सर्वथा स्वरूपापरित्यागेन चिरकालमवस्थानसंभवात, उत्कृप्टेनापि तिर्यग्मनुष्याणामन्तर्मुहूर्तलक्षणस्थिति. परिणामस्यान्यत्रोक्तस्य विरोधापत्तिः, पल्योपपत्रयमपि यावद् उत्कृष्टेन स्थितिसंभवाद् है तो वह उसी के रंग-रूप में, गंध, रस एवं स्पर्श के रूप में वार-वार परिणत हो जाती है । उपसंहार करते हुए कहते हैं-इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या, नीललेश्या यावत् शुक्ललेश्था को प्राप्त होकर उसी के रूप में परिणत हो जाती है। यहां यह समझ लेना चाहिए कि जैसे वैडूर्य मणि एक ही होने पर भी विभिन्न उपाधियों के सम्पर्क से विभिन्न रूप में परिणत हो जाती है, उसी प्रकार लेश्याद्रव्य भी कृष्ण नील आदि विभिन्न रूपों में परिणत हो जाते हैं । इसी अंश में दृष्टान्त को समानता समझना चाहिए । अन्य अनिष्ट अशों में नहीं। नियंचों और मनुष्यों के लेश्याद्रव्यों का पूर्ण रूप से तद्रूप परिणमन स्वीकार किया गया है, अन्यथा जैसे देवों और नारकों के लेश्याद्रव्य भवपर्यन्त स्थायी रहते हैं, वैसे ही मनुष्यों और निर्यचों के भी अवस्थित रहेंगे, ऐसी स्थिति में अन्यत्र तिर्थचों और मनुष्यों के लेश्यापरिणाम अधिक से अधिक अन्तर्मुहर्त तक ही स्थिर रहती कहा है, उस कथन में बाधा आएगी फिर तो તે તેનાજ રૂપર ગમાં, ગંધ, રસ તેમજ સ્પર્શના રૂપમાં વારંવાર પરિત થઈ જાય છે. ઉપસંહાર કરતા કહે છે–એ કારણથી એવું કહેવાય છે કે-કૃષ્ણલેશ્યા નીલલેશ્યા યાવત્ શુકલેશ્યાને પ્રાપ્ત થઈને તેના જ રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે અહીં એ સમજી લેવું જોઈએ કે જેમ વિડ્રમણિ એક જ હોવા છતાં પણ વિભિન્ન રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે આજ બાબતમા દષ્ટાન્તની સમાન ના સમજવી જોઈએ અન્ય અનિષ્ટ અંશમાં નહીં. તિર્યંચ અને મનુષ્યના લેસ્થા દ્રવ્યપૂર્ણરૂપે તદ્રુપ પરિણમન સ્વીકારેલા છે, અન્યથા જેવા દે અને મનુષ્યના લેશ્યા દ્રવ્ય ભવપર્યત સ્થાયી રહે છે, તેવાં જ મનુષ્ય અને નિર્ય ના પણ અવસ્થિત રહેશેઆવી સ્થિતિમાં અન્યત્ર તિર્યંચ અને મનુષ્યના વેશ્યા પરિણામ અધિકથી અધિક અન્તર્મુહૂર્ત સુધી જ સ્થિર રહેવાનું કહ્યું છે, એના
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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