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________________ १९२ धिना अवधिज्ञानेन सर्वतः-सर्वदिक्षु, समन्ततः सर्वविदिक्ष सममिकोकमानः-प्रेक्षमाणः क्रियत क्षेत्र कियत्परिमाणं क्षेत्रं जानाति ? अथ च कियत् क्षेत्रं-कियद् वा क्षेत्रम् अवधिदर्शनेन पश्यति? भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'णो बहुयं खेत्तं जाणा, गोवहुयं खेत्तं पास' नो पहुकं क्षेत्रं जानाति, नो बहुकं क्षेत्रं पश्यति, तथा च कश्चिन् कृष्णले यो नैरयिकोऽपरकृष्णलेश्यनरयिकापेक्षया न खलु योग्यतानुसारेणातिविशुद्धोऽपि अतिप्रभूत क्षेत्रमवधिज्ञानेन जानाति प्रश्यति वा इत्यभिप्रायेणाह-'णो दूरं खेत्तं जाणइ, णो दूरं खेत्तं पासह नो दूरम्-अत्यन विप्रकृष्ट क्षेत्रं जानाति, नो दूरं क्षेत्रं पश्यति, अपितु 'इत्तरिय मेव खेत्तं जाणइ, इत्तरियमेव खेत पासह इत्वरमेव स्वल्पमेवाधिक क्षेत्रं जानाति, इत्वरमेव-स्वल्पमेवाधिक क्षेत्रं पश्यति, एन्ध समानपृथिवीककृष्णलेश्य नैरपिकविपयकं बोध्यम्, अन्यथा दोपापत्तिः स्यात्, तथाहि-सप्तम पृथिवीगत कृष्णलेश्य नैरयिको जघन्येन गव्यूताई जानाति उत्कृष्टेन गव्यूतम्, पष्ठपृथिवीगतः कृष्णलेश्यो नैरयिको जघन्येन गव्यूतम् उत्कृष्टेन सार्द्धगव्यतम्, पञ्चमपृथिवीगत कृष्ण नारक की अपेक्षा अवधि के द्वारा समस्त दिशाओं में और समस्त विदिशाओं में अवलोकन करता हुआ कितने क्षेत्र को जानता है ? और अवधिदर्शन से कितने क्षेत्र को देखता हैं ? - भगवान्-हे गौतम ! न बहुत क्षेत्र को जानता है, न बहुन क्षेत्र को देखता है। तात्पर्य यह है कि एक कृष्णलेश्या वाला नारक दुसरे कृष्णलेश्या वाले नारक की अपेक्षा, योग्यता के अनुसार विशुद्धि वाला होने पर भी बहुत अधिक क्षेत्र को अवधि से नहीं जानता देखता है । इस अभिप्राय से सूत्र कार कहते हैं दूर क्षेत्र को नहीं जानता है, दर क्षेत्र को नहीं देखता है किन्तु थोडे ही अधिक क्षेत्र को जानता है और थोडे ही अधिक क्षेत्र को देखता है। यह कथन एक ही पृथ्वी के नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए, अथवा दोष की प्राप्ति होगी, क्यों कि सातवीं पृथ्वी का कृष्णलेश्यावात् नारक जघन्य आधा गाउ और उत्कृष्ट एक गाउ जानता है जब कि छट्ठी पृथ्वी का कृष्णलेश्या અવલોકન કરી રહેલ કેટલા ક્ષેત્રને જાણે છે. અને અવધિદર્શનથી કેટલા ક્ષેત્રને દેખે છે? શ્રી ભગવાન ! હે ગૌતમ ! ઘણા ક્ષેત્રને નથી જાણતા અને ઘણું ક્ષેત્રને નથી દેખાતા તાત્પર્ય એકે કૃષ્ણલેશ્યાવાળે નારક બીજા કૃષ્ણલેશ્યાવાળા નારકની અપેક્ષાએ, ગ્યતાના અનુસાર વિશુદ્ધિવાળા થઈને પણ ઘણા અધિક ક્ષેત્રને અવધિથી નથી જાણતા કે દેતા એ અભિપ્રાયથી સૂત્રકાર કહે છે દૂર ક્ષેત્રને નથી જાણતા, દર ક્ષેત્રને નથી દેખતા, પણ થોડા જ વધારે ક્ષેત્રને જાણે છે અને થોડા જ અધિક ક્ષેત્રને દેખે છે. આ કથન એક જ અથ્વીના નારની અપેક્ષાએ કરી સમજવા જે છે, અન્યથા દેષની પ્રાપ્તિ થશે, કેમકે સાતમી પૃથ્વીના કુણુયા વાન નારક જઘન્ય અર્થેગાઉ અને ઉત્કૃષ્ટ એક ગાઉ જાણે છે, છટ્રી પૃથ્વીના કુર્ણય
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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