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________________ प्रबोधिनी टीका पद १६ सू० ७ सिद्धक्षेत्रोपपातादिनिरूपणम् ११५ प्राप्य तद्रूपतया यावत् परिणमति, सा एपा लेश्यागति: ११, तत् का सा लेश्यानुपातगतिः ? - लेश्यानुपातगति र्यल्लेयानि द्रव्याणि पर्यादाय कालं करोति तल्लेश्येषु उपपद्यते तद्यथा - कृष्णलेइयेषु वा यावत् शुक्ललेइयेपु, सा एषा लेश्यानुपातगति: १२, तत् का सा उद्दिश्य प्रविभक्तगतः ? उद्दिश्य प्रविभक्तगति यत् खलु आचार्य वा उपाध्यायं वा स्थविरं वा प्रवक्तारं गणि वा गणधरं वा गणावच्छेदं वा उद्दिश्य उद्दिश्य गच्छति सा एपा उद्दिश्य प्रविभक्त(उलेस्स) इसी प्रकार कापोतलेश्या भी तेजोलेश्या को (तेउलेस्सा बि पम्ह लेस्स) जो लेश्या भी पद्मलेश्या को (पम्हलेस्सावि सुक्कलेस्सं पप्प) पद्मलेश्या भी शुक्ल लेश्या को प्राप्त हो कर (ता रूवत्ताए जाव परिणमति) उसी के वर्ण रूप मैं परिणत होती है (से तं लेस्सागती) वह लेश्यागति है (से किं तं लेसाणुवायगती २ १) लेश्यानुपातगति क्या है ? (जल्लेसाई दव्वाई परियाइत्ता) जिस लेयाके द्रव्यों को ग्रहण करके ( कालं करेह) काल करता हैमरता है (तल्लेसेसु उववज्जइ) उसी लेइया वालों में जन्म लेता है (तं जहा किन्ह लेस्सेसु वा जाव सुक्कलेस्सेसु वा ) वह इस प्रकार कृष्णलेश्यावालों में यावत् शुक्लश्यावालों में (से तं लेस्साणुवायगती) वह लेश्यानुपातगति हैं । • (से किं तं उद्दिपविभत्तगती २१) उद्दिश्यप्रविभक्तगति किसे कहते हैं ? (जंणं आयरियं वा ) जो कि आचार्य) को (उवज्झायं वा ) अथवा उपाध्याय को (थेरं वा ) अथवा स्थविर को (पवति वा) अथवा प्रवर्त्तक को (गणि वा) अथवा 'गणी को (गणहरं वा ) अथवा गणधर को (गणावच्छेदं वा ) अथवा गणावच्छेदक को (उद्दिस उद्दिस्स) उद्देश्य कर-करके (गच्छइ) गमन करता है 1 ( से तं (लस्सा वि देउलेरस) मे अक्षरे येत श्या या तेले येश्याने ( तेउलेस्सा वि पन्हलेस्स) तेले बेश्या या योश्याने (पम्हलेस्सा वि सुत्रकलेस्सं पप्प ) हूभ लेश्या या शुस श्याने आस ने ( तावत्ता जाव परिणमति) तेना ४ वर्ष ३५भां परित थाय छे ' (सेत लेरसा गती) ते तेश्या गति छे 1-1 ! (से किं लेस्साणुवायगती ?) सेश्य'नुपातगति शु छे / १ (जल्लेस्साई दव्वाई परिया· इत्ता) ने बेश्या द्रव्यते श्रद्धथु ४२रीने (कालं करेइ) आज ४२ छे-भरे छे ( तल्लेंस्सेसु, उवव'ज्जइ) 'तेन सेश्यावाणामां उत्पन्न थाय छे (तं जहा किण्हलेरसेसु, जाव सुक्कलेरसेखु वा) ते मा अठरे–दृष्ट् येश्यावाणाममा यवत् शुद्ध बेश्यावाणाभी ( से तं लेस्सा नुवायगती), લેશ્યાનુપાત ગતિ છે " 1 1 ) ( से किं तं उद्दिस पविभत्तंगती ? २) उद्दिश्य अविलम् गति शेने हे छे ? (जं णं 'आयरियं वा) ले !' आयार्य ने ( उवज्झायं वा ) अथवा उपाध्यायने (थेरं वो) अथवा स्था विरने (पवत्तिं वा ) अथवा प्रवर्तते (गणि वा) अथवा गहने ( गणहरं वा ) अथवा ग*५२ने,(गणावच्छेदं वा) अथवा गावाने (उद्दिस उद्दिस ) उद्देश्य भरी मीने (गच्छ) जभन ५रे छे (से तं उद्दिपविभत्तगती) ते उद्दिश्य अविभक्त गति है ""
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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