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________________ प्रशापनास्त्रे __टीका-अथ पूर्वोक्तक्रोधादीनां निवृतिभेदादवस्थाभेदाच्च भेदान प्ररूपयितुमाह-'कइ. विहे णं भंते ! कोहे पण्णते ?' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! कतिविधः खलु क्रोधः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'चउबिहे कोहे पण्णत्ते' चतुर्विधः क्रोधः 'प्रज्ञप्तः, 'तं जहा-आभोगनिव्वत्तिए' तद्यधा-आभोगनिर्वतितः 'अणाभोगनिव्वत्तिए' अनामोगनिर्वर्तितः, 'उवसंते, अणुवसंते' उपशान्तः, अनुपशान्तश्च, तत्र यदा परस्यापराधं बुद्ध्वा क्रोधहेतुञ्च व्यवहारेण पुष्टमवलम्ब्य प्रकारान्तरेणास्य शिक्षा न सम्भवतीति आभोग्य-विचार्य क्रोधं करोति तदा स क्रोधः आभोगनिवर्तितः उच्यते यदा तु साधारणत एव तथाविधमोहवशाद् गुणदोष(अट्ठारस दंडगा) अठारह दंडक (जाव वेमाणिया) वैमानिकों तक (निजरिंसु, निजरेति, निजरिस्संलि) निर्जरा की, निर्जरा करते हैं, निर्जरा करेंगे । .... (आयपतिहिय) आत्मप्रतिष्ठित (खेतं पडुच्च) क्षेत्र के आश्रय से (अणंताणुबंधि) अनन्तानुबंधी (आभोगे) उपयोग (चिण-उवचिण-बंध-उदीर-वेद) (चय, उपचय, बंध, उदीरणा, वेदना (तह निजरा) तथा निर्जरा (चेव) और । कषाय पद समाप्त टीकार्थ-अब निवृत्ति के भेद से तथा अवस्था के भेद से होने वाले क्रोधोदि के भेदों की प्ररूपणा की जाती है::गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं-हे भनवन् ! क्रोध कितने प्रकार का कहा है ? भगवान्-हे गौतम ! क्रोध चार प्रकार का कहा है, यथा-आभोगनिर्वर्तित, अनाभोगनिवर्तित, उपशान्त और अनुपशान्त । जब दूसरे के अपराध को जानकर और क्रोध के पुष्ट कारण का अवलम्बन करके, 'प्रकारान्तर से इसे शिक्षा नहीं मिल सकती, ऐसा विचार करके क्रोध करता है, तब वह क्रोध सुधी (निज्जरि सु निजरे ति, निजरिस्संति) नि२१ ४१, नि२४२ छ, नि२० ४२d (आयपतिद्विय) मात्म प्रतिहत (खेत्तं पडुच्च) क्षेत्रना माश्रयथा (अणंताणुवंधि) मनन्तातुमयी (आभोगे) ७५यो (चिण-उवचिण-बंध-उदीर-वेद) यय, उपयय, मधेही२, वेदना (तह निज्जरा) तथा नि । (चेव) मन કષાય પદ સમાસ ટીકાઈ-હવે નિવૃત્તિના ભેદથી તથા અવસ્થાના ભેદથી થનારા ક્રોધાદિના ભેદની પ્રરૂપણ કરાય છે શ્રી ગૌતમસ્વામી પ્રશ્ન કરે છે. હે ભગવન્! ક્રોધ કેટલા પ્રકારના કહ્યા છે? - શ્રી ભગવાન હે ગૌતમ ! ક્રોધ ચાર પ્રકારના કહ્યા છે, જેમકે, આભેગનિવર્તિત અનાગનિવર્તિત, ઉપશાત અને અનુપશાન્ત. જ્યારે બીજાને અપરાધને જાણીને અને ફોધને પુષ્ટકરણનું અવલંબન કરીને, પ્રકારન્તરથી એને શિક્ષા નથી મળી શકતી, એ વિચાર કરીને ક્રોધ કરે છે, ત્યારે તે કોઇ આગનિવર્તિત અર્થાત્ જણ વિચારથી ઉત્પન્ન ક્રોધ
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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