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________________ ३७१ प्रमेयवोधिनी टीका पद ११ सू० ९ भाषाद्रव्यग्रहणनिरूपणम् ताइं असंखेज्जाओ ओगाहणवग्गणाओ गंता भेदमावज्जति संखेज्जाइं . जोयणाई गंता विद्धंसमागच्छंति ॥सू० ९॥ __छाया-जीवः खलु भदन्त ! यानि द्रव्याणि भापकतया गृह्णाति, तानि कि सान्तरं गृह्णाति, निरन्तरं गृह्णाति ? गौतम ! सान्तरमपि गृह्णाति, निरन्तरमपि गृह्णाति, सान्तरं गृह्णन् जघन्येन एकसमयम्, उत्कृष्टेन असंख्येयसमयम्, अन्तरं कृत्वा गृह्णाति, निरन्तरं गृह्णन् जघन्येन द्वौ समयौ उत्कृष्टेन असंख्येयसमयान् अनुसमयम् अविरहितं निरन्तरं गृह्णाति, जीवः खलु भदन्त ! यानि द्रव्याणि भापकतया गृहीतानि निसृजनि तानि किं भाषाद्रव्यग्रहण संबंधी विशेष वक्तव्यता . शब्दार्थ-(जीवे णं भंते जाइं व्वाई भासत्ताए गेण्हई) हे भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है (ताई किं संतरं गेण्हइ, निरंतर गेण्हइ ?) क्या उन्हें सान्तर बीच में व्यवधान डाल कर-ग्रहण करता है, या निरन्तर अर्थात् लगातार ग्रहण करता है ? (गोयमा ! संतरंपि गेण्हइ, निरंतरंपि गेण्हइ) हे गौतम! सान्तर भी ग्रहण करता है, निरन्तर भी ग्रहण करता है (संतरं गिण्हमाणे) सान्तर ग्रहण करता हुआ (जहण्णेणं एगं समय) जघन्य एक समय (उक्कोसेणं असंखेज्जसमए) उत्कृष्ट असंख्यात समय का (अंतरं कटु) अन्तरं करके (गिण्हइ) ग्रहण करता है (निरंतरं गेण्हमाणे) निरन्तर ग्रहण करता हुआ (जहण्णेणं दो समए) जघन्य दो समय तक (उक्कोसेणं असंखेजसमए) उत्कृष्ट असंख्यात समय तक (अणुसमय) प्रतिसमय (अविरहियं) बिना विरह के (निरंतर) लगातार (गेण्हइ) ग्रहण करता है (जीवे णं अंते ! जाई व्वाइं भासत्ताए गहियाई णिस्सरइ) हे भगवन् ! ભાષા દ્રવ્ય ગ્રહણ સંબંધી વિશેષ વક્તવ્યતા हाथ-(जीवे णं भंते जाई व्वाई भासत्ताए गेण्हति) 3 मापन् । १२ द्रव्यान भाषान। ३५मा अडाय ४२ छ (ताई कि संतरं गेहति, निरंतरं गेहति) शु तयातन સાન્તર વચમાં વ્યવધાન નાખી તે-ગ્રહણ કરે છે, યા નિરન્તર અર્થાત અનવરત ગ્રહણ ४२ छ ? (गोयमा ! सन्तरंपि गेण्हति, निरंतरंपि गेण्हति) 3 गोतम !'सान्त२ ५ अड अरे छ, निरन्तर पर प्रहय ४२ छ (संतरं गिण्हमाणे) सान्त२ यह ४ रस (जहण्णे णं एग समयं) धन्य ४ समय (उक्कोसेणं असंखेज्जसमए) कृष्ट मस ज्यात सभयन। (अंतरं क) अन्तर ४शन (गिण्हति) यह ४२ छे (निरंतरं गेण्हमाणे) निरन्तर ग्रहय ४श २स (जहण्णेणं दो समए) धन्य में सभय सुधा (उक्कोसेणं असंखेज्जसमए) उस्कृष्ट मसण्यात समय सुधा (अणुसमयं) प्रतिसमय (अविरहियं) विरह विना (निरंतर) मन१२त (गेहति) अप ४२ छे (जीवेणं भंते ! जाई व्वाई भासत्ताए गहियाइं णिसरद) मावन् ! ७१ सालाना
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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