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________________ ૦૮ प्रचापनासूत्रे वर्णसंभवे सत्यपि बलाकाः शुक्ला इत्युच्यने, तथा 'जोगसच्चा९' योगसत्या भाषा भवति, तत्र योगः सम्बन्ध स्तस्मात् सत्या - योगसत्या, यथा छजयोगाद विवक्षित-शब्दव्यवहारकाले छत्राभावेऽपि छनयोगस्य संभवात् छत्रीति प्रयुज्यते, एवं दण्डयोगाद् दण्डीति प्रयुज्यते, तथा - ' ओवम्म सच्चा १०१ औपम्य सत्या भापा भवति, यथा 'गोसवशी गवयः' इत्यादी गवये गोसादृश्यरूपौपम्यात् सत्या भाषा भवति, अथ शिप्यजनानुग्रहाय संग्रहणीं गाथा माह'जणवय १ संमत २ ठवण ३ नामे४ रूवे ५ पडुच्च सच्चे ६ य । ववहार७ भाव८ जीगे९ दलमे ओवम्म सच्चे य १०' ॥ जनपदः संमतं, स्थापना, नाम, रूपम्, प्रतीत्य सत्या च । व्यवहार भाव योगो दशमी औपम्य सत्या च मापा भवति । सत्य भाषा कहलाती है । जो भाव जिस पदार्थ में अधिकता से पाया जाता है, उसी के आधार पर भाषा का प्रयोग देखा जाता है। ऐसी भाषा भावसत्य कहलाती है, जैसे पांचों वर्ण होने पर भी बलाका (चगुलों की पंक्ति) को श्वेत कहना । (९) योगसत्या - योग का अर्थ है सम्बन्ध | उससे जो भाषा सत्य हो वह योगसत्य भाषा कहलाती है । जैसे छत्र के योग से किसी को छत्री कहना, भले ही किसी समय छत्र का योग उसमें न पाया जाय । इसी प्रकार किसी को दंड के योग से दंडी कहना । (१०) औपम्यसत्य - जो भाषा उपमा से सत्य मानी जाय । जैसे- गवय ( रोझ) गौ के समान होता है । इस प्रकार की उपमा पर आश्रित भाषा औपम्यसत्य कहलाती है । अव शिष्य जनों के अनुग्रह के लिए संग्रहणी गाथा कहते हैं - (१) जनपदसत्य (२) सम्मतसत्य (३) स्थापन सत्य (४) नामसत्य (५) रूपसत्य (६) प्रती - ભાષા કહેવાય છે. જે ભાવ જે પદાર્થમા અધિકતા મેળવે છે, તેના આધાર પર પરભાષાને પ્રયાગ જણાય છે. એવી ભાષા ભાવસત્ય કહેવાય છે જેમ પાચે ર્ ગેહેાવા છતાં ખલાકા (અગલાની પ ક્તિ) ને શ્વેત કહેવા (E) योगसत्य-योगनो अर्थ छे सम्बन्ध તેનાથી જે ભાષા સત્ય હૈાય તે ચેાગसत्यलाषा अहेवाय छे. नेम-छत्रना योगथी अर्थ ने 'छत्री' 'हेवा, असे अर्ध वमते છત્રને ચેગ તેમાં ન હેાય. એજ રીતે કોઈને દડના ચેાગથી ઈંડી કહેવા. (१०) औपभ्यसत्य-ने लापा उपभांथी सत्य भनाय ने भरे - गवय (शञ) गायना सभान હૈાય છે. આ પ્રકારની ઉપમા પર આશ્રિત ભાષા ઔપમ્યસત્ય કહેવાય છે. હવે શિષ્યજનેાના અનુગ્રહમાટે સંગ્રહણી ગાથા કહે છે (१) ४नयदृभृत्य (२) सम्भतसत्य (3) स्थापनासत्य ( ४ ) नाससत्य (4) ३५सत्य (१) प्रतीन्यसत्य (७) व्यवहारसत्य (८) लावसत्य (ङ) येोगसत्य (१०) अने औरभ्यसत्य
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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