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'प्रबोधिनी टोका पद १० सू. ७ जीवादिचरमावरम निरूपणम्
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'चरमेण किं चरमाः, अचरमाः ? गौतम ! चरमा अपि, अचरमा अपि, एवं निरंतरं यावद् बैमानिकाः, नैरयिकः खलु भदन्त ! आहारचरमेण किं चरमः, अचरमः ? गौतम ! स्यात् ..चरमः स्यात् अचरमः, एवं निरन्तरं यावद् वैमानिकः, नैरयिकाः खलु भदन्त ! आहारचरमेण किं चरमाः, अचरमाः ? गौतम ! चरमा अपि, अचरमा अपि, एवं निरन्तरं यावद् - वैमानिकाः, नैरयिकः खलु भदन्त ! भावचरमेण किं चरमः, अचरमः ? गौतम ! स्यात् चरमः, . स्यात् अचरमः, एवं निरन्तरं यावद् वैमानिकः, नैरयिकाः खलु भदन्त ! भावचरमेण किं चरमेणं किं चरमा अचरमा !) भगवन् ! नारक श्वासोच्छवास चरम से क्या चरम हैं या अचरम हैं ? (गोयमा ! चरमा वि अचरमा वि) हे गौतम! चरम भी हैं, अचरम भी हैं ( एवं निरंतरं जाव वैमाणिया) इसी प्रकार निरन्तर वैमानिकों तक ।
(नेरइए णं भते ! आहारचरमेणं किं चरमे, अचरमे 2 ) हे भगवन् ! नारक आहार से चरम क्या चरम है या अचरम ? (गोयमा ! सिय चरमे, सिय अचर मे) गौतम ! कथंचित् चरम, कथंचित् अचरम है, ( एवं निरंतरं जाव वैमाणिए) इसी प्रकार निरन्तर वैमानिक तक (नेरइया णं भते ! आहारचरमेणं किं वरमा अचरमा ?) भगवन् ! नारक आहार चरम से क्या चरम हैं या अचरम १ ' (गोयमा ! चरमा वि अचरमा वि) गौतम ! चरम भी, अचरम हैं ( एवं निरंतर जाव वैमाणिया) इसी प्रकार निरन्तर वैमानिकों तक ।
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(नेरइए णं अंते! भावचरमेणं किं चरमे, अचरमे ?) हे भगवन् ! नारक भाव - चरम से क्या चरम है या अचरम ? (गोयमा ! सिय चरमे, सिय अचरमे) कथंचित् चरम है, कथंचित् अचरम है ( एवं निरंतरं जाव वैमाणिए) इसी प्रकार निरन्तर वैमानिक तक (नेरइया णं भंते ! भाव चरसेगं किं चरमा, अचरमा ?) हे भगवन् ! ना२४ श्वासोस्छवास थरभथी शु यरभ छे अगर अयरभ छे ? (गोयमा ! चरमा व अचरमा वि) से गीतम् । श्ररभ या छे अयरभ याशु छे ( एवं निरंतर जाव माणिया ) मे प्रारे निरंतर वैमानि। सुधी
(रणं भंते ! आहार चरमेणं किं चरमे, अचरमे १) हे भगवन् ना२४ भाडार यरभथी ४- थरभ छे अगर अन्यरभ ? (गोयमा ! सिय चरमे सिय अचरमे) हे गौतम! थयित् 'शरभ थायित् अथरभ ( एवं निरंतरं जाव वैमाणिए) से प्रहारे निरन्तर वैभानि । सुधी (नेरइयाणं भंते ! आहारचरमेणं किं चरमा अचरमा १) हे भगवन् ! नार आहार यरभथी 'शु थरम छे मगर अथरभ (गोयमा ! चरमा वि अचरमा वि) हे गौतम! रभ प अयरभ पशु छे (एवं निरंतरं जाव वैमाणिया ) मेन प्रहारे निरंतर वैभानि। सुधी
(नेरइयाणं भंते ! भाव चरमेणं किं, चरमे अचरमे १) हे भगवन् ! नारभाव - थरभथी शुरभागर अयरभ छे ? (गोयमा ! सिय चरमें सिय अचरमे ) ४थति रभ छे, थति अथरभ छे ( एवं निरंतरं जाव वैमाणिए) येन प्रहारे निरन्तर वैभानि पर्यन्त निरयाणं भंते । भाव घरमेणं किं परमा, अचरमा ?) हे भगवन् ! नार४ शुभाष सर
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