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प्रमेयवोधिनी टीका पद ५ स्व.१५ जघन्यगुणकालकादिपर्यायनिरूपणम् ८७७ स्थित्या चतु:स्थानपतितः, वर्णगन्धरसेः पदस्थानपतितः, गीतस्पर्शपर्यवंश्च तुल्यः, उप्णस्पर्शी न भण्यते, स्निग्धरूक्षस्पर्शपर्यवै पदस्थानपतितः, एवमुत्कृष्टगुणशीतोऽपि, अजघन्यानुत्कृष्टगुणशीतोऽपि एवञ्चैव नवरं स्वस्थाने पदस्थानपतितः, जघन्यगुणशीतानां द्विप्रदेशिकानां पृच्छा गीतम ! अनन्ता : पर्यवा प्रजप्ताः, तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-जघन्यशीतानां द्विप्रदेशिकानामनन्ता पर्यवाः प्राप्ताः? (ओगाहणयाए तुल्ले) अवगाहना से तुल्य (ठिईए चट्टाणवडिय) स्थिति से चतुःस्थानपतित (वण्णगंधर सेहिं छहाणवडिए) वर्ण, गंध, रस से पट्स्थानपतित् (सीवफासपजवेहि य तुल्ले) गीत स्पर्श के पर्यायों से तुल्य (उसिजकालो न भण्णइ (उष्ण स्पर्श नहीं कहना (णिद्धलक्कप्तासपज्जवेहि य छटाणवडिप) स्निन्ध और रूक्ष स्पर्श के पर्यायों से षट्स्थानपतित (एवं उक्कोसगुणसीए वि) इसी प्रकार उत्कृष्टगुण शीत भी (अजहण्णमणुक्योधगुणसीए वि एवं चेव) मध्यमगुण शीत भी इसी प्रकार (नवरं सट्टाणे छट्टाणवडिए) विशेष यह कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित है ।
(जहण्णगुणसीयाणं दुपसियाणं पुच्छा ?) जघायगुण शीत विप्रप्रदेशी स्कंधों के पर्यायों की इच्छा ? (गोयमा ! अणंता पजवा पण्णत्ता) हे गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं (से केणटेणं भंते एवं बुच्चइ-जहण्णगुणसीयाणं दुपएसियाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ?) किस कारण से हे भगवन् ! ऐसा कहा है कि जघन्यगुण शीत विप्रदेशी स्कंधों के वडिए) स्थितिथी यतु स्थान पतित (वण्णगवरसेहि छट्ठाणवडिए) वाणु, म २सथी ५८स्थान पतित (सीय फासपज्जवेहि य तुल्ले) शीत २५शना पर्यायाची तुक्ष्य (उसिणफासो न भण्इ) एy १५श नही । (णिद्ध लुक्ग्य फासपज्जवेहिय छट्ठाणवडिए)
निमने ३२ २५शना पर्यायाथी ५८२थान पतित (एवं उकोसगुणसीए वि) से प्रारे कृष्ट गुण शीत पर (अजहण्णमणुफोसगुणसीएवि एवं चेव) मध्यम गुर शीत ५५] मे ५४३ (नवरं सदाणे छट्टाणवडिए) विशे५ से २१२थानमा ५८२थान पतित छ
(जहण्णगुणसीयाणं दुपएसियाणं पुच्छा ?) धन्य गुए शीत देशी २४.धोना पर्यायानी छ ? (गोयमा । अयंता पज्जवा पण्णत्ता) गीतम! मनन्त पर्याय ४॥ छे (से णटेणं एवं बुबइ-जहण्णगुणसीयाणं दुपए सियाणं अणंता पउजवा पण्णत्ता ?) ४२ उ मावन् ! मे है vधन्य शुशीत दिप्रदेशी २४न्धान मनन्त पर्याय ४६॥ छ ? (गोयमा ! जहाण