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________________ heatfunी टीका पद ५ सु.०१५ जवन्वगुणकालका दिपर्याय निरूपणम् ८६९ पर्ययाः प्रज्ञप्ताः, तत् केनार्थेन भदन्त ! एव मुच्यते जघन्यगुणकाकानां द्वि प्रदेशिकानामनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जवन्यगुणकालको द्विदेशिको जघन्यगुणकालकस्य द्विप्रदेशिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः प्रदेशार्थतया तुल्यः, अबगाहनार्थतया स्याद्धीनः स्यात्तुल्यः स्यादभ्यधिकः, यदा हीनः प्रदेशहीनः, अथाभ्यधिकः प्रदेशाभ्यधिकः, स्थित्या चतुःस्थानपतितः, कृष्णवर्णपर्यवस्तुल्यः, अवशेपवर्णादिभिरुपरितनचतुःस्पर्शेञ्च पदस्थानपतितः, एवमुत्कृष्टगुणकाल बुच्चई - जहण्णगुणकालयाणं हुए एसिएयाणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता ?) किस कारण हे भगवन! ऐसा कहा जाता है कि जघन्यगुण काले बिदेशी स्कंध के अनन्त पर्याय कहे हैं ? (गोयमा ! जहण्णगुणकालए दुपएसिए) हे गौतम ! जघन्यगुण काला छिप्रदेशी स्कंध ( जहण्णगुणकालियस्स दुपसियस्स) जघन्यगुण काले छिमदेशी स्कंध से (दव्ययाए तुल्ले) द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है (ओगाण्ड्याए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अम्भहिए) अवगाहना की अपेक्षा से स्यात् हीन, स्यात् तुल्य स्यालू अधिक (जई होणे पएसहीणे) यदि हीन है तो एक प्रदेश से होन (अह असहिए पएस अन्भहिए ) अगर अधिक है तो एक प्रदेश से अधिक (टिईए चट्टान वडिए) स्थिति से चतुःस्थानपतित (कालचण्णपज्जयेहिं तुल्ले) कृष्णवर्ण के पर्यायों से तुल्प (अवसेसवण्णाइ उवरिल्ल चउफासेहि यछडा णवडिए) शेष वर्णादि से 'तथा ऊपर के चार स्पर्शो से षट्स्थानपतित होता है । पण्णत्ता) हे गौतम | अनन्त पर्याय ह्या छे (से केणट्टेणं भंते । एवं बुच्चइ - जहणगुणकालयाणं दुपरसियाणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता १) शार भगवन ! એવું કહેવાય છે કે જધન્ય ગુણુ કાળા દ્વિપ્રદેશી સ્કન્ધના અનન્ત પર્યાય छे ? (गोयमा । जहण्णगुणकाला दुपए सिए) हे गौतम! धन्य शुशु राजा छिप्रदेशी सुन्व (जण्णगुणकालयास दुपासियम्स ) ४धन्य गुगु क्षणा द्विग्रदेशी सुन्वथी (वय तुल्ले) द्रव्यनी अपेक्षा तुझ्य हे (पए नट्टयाए तुम्ले) अहेशानी अपेक्षा तुल्य हे (ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अम हिए) अवगाहनानी अपेक्षाओं स्यात् हीन, स्यात् तुझ्य, स्यात् अधि (जद होणे पएसहीणे) ले हीन होय तो मे प्रदेशधी डोन (अठ अम्भहिए पास अन्भहिए) गगर धितो प्रदेशधी अधिक (ठिझा चड्डाणवटिए) स्थितिथी चतुःस्यान पतित (कालपणपञ्जवेहिं तुल्ले) कृणु वर्धुना पर्यायोथी ( अबसेस वण्णा अल्लि चाहि चड्डाणडिए) शेष वर्षाद्द्थिी तथा રના ચાર સ્પર્શથી સ્થાન પતિત થાય છે
SR No.009339
Book TitlePragnapanasutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1196
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size80 MB
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