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________________ प्रज्ञापनासूत्रे ८३२ स्थानपतितः, अवगाहनार्थतया तुल्यः स्थित्या चतुःस्थानपतितः वर्णादिभिरुपरि तनस्पर्शेश्च पदस्थानपतितः एवमुत्कृष्टावगाहनकोऽपि, अजघन्यानुत्कृष्टावगाहन कोsपि एवञ्चैव, नवरं स्वस्थाने चतुःस्थानपतितः जघन्यावगाहनकानां भदन्तः ! अनन्तप्रदेशिकाना पृच्छा, गौतम ! अनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः तत् के नार्थेन भदन्तः एवमुच्यते - जघन्यावगाहनकानामनन्तप्रदेशिकानामनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ता ? णगस्स असखिज्जपएसियस्स धस्स दव्वट्टयाए तुल्ले) हे गौतम ! जघन्य अवगाहना वाला असंख्यातप्रदेशी स्कंध जघन्य अवगाहना वाले असंख्यात प्रदेशी स्कंध से द्रव्य की दृष्टि से तुल्य (एसइयाए चाणडिए) प्रदेशों की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित (ओगाहणट्टयाए तुल्ले) अबगाहना से तुल्य (टिईए चट्टानवडिए) स्थिति से चतुःस्थान पतित (वण्णाइ उवरिल्लफासेहि य छट्टाणवडिए) वर्णादि से तथा उपर के चार स्पर्शो से षट्स्थानपतित ( एवं उक्को सोगाहणए वि) इसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाला भी ( अजहण्णमणुक कोसोगाहगए वि एवं चेव) मध्यम अवगाहना वाला भी इसी प्रकार (नवरं सहाणे चणवडिए) विशेषता यह कि स्वस्थान में चतुःस्थानपतित (जहण्णोगाहणगाणं भंते ! अनंतपणसियाणं पुच्छा ?) हे भगवन ! जघन्य अवगान वाले अनन्त प्रदेशी स्कंधों की पृच्छा ? (गोयमा ! अनंता पज्जवा पण्णत्ता) हे गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं (से केणट्टेणं भंते एवं बुच्चइ - जहण्णोगाहणगाणं अनंतपएसियाणं अनंता पज्जवा सिए खंधे जहण्णोगाहणगस्स अस खिज्जपएसियस्स संधस्स दब्बट्टयाए तुल्ले) डे ગૌતમ જઘન્ય અવગાહનાવાળા અસંખ્યાત પ્રદેશી સ્કન્ધ જઘન્ય અવગાહના वाणा असंख्यात अहेशी सुन्धथी द्रव्यनी दृष्टि तुझ्य (पएसट्टयाए चउट्ठाण वडिए) अहेशानी अपेक्षामे यतुःस्थान पतित (ओगाहणट्टयाए तुल्ले) भवगाडुनाथी तुझ्य (ठिईए चउट्ठाणवडिए) स्थितिथी यतुःस्थान पतित (वण्णाइ उत्ररिल्लफासेहिय छुट्ठाणवडिए) वर्णाद्दिथी तथा अयरना थार स्पर्शोथी षट्स्थान पतित ( एवं उक्कोसोगा हणए वि) मे अहारे उत्सृष्ट भवगानावाजा पशु (अजto मणुकोसोगाere वि एवं चेव) मध्यम अवगाहना वाजा पशु न शेते (नवरं सट्ठाणे चउट्ठाण वडिए) विशेषता मे स्वस्थानमां यतुःस्थान पतित छे (जहण्णोगाहणगाणं भंते । अनंतपएसियाणं पुच्छा ?) हे भगवन् । धन्य अवगाहनावाजा अनन्त प्रदेशी सुधोनी पृच्छा ? (गोयमा ! अनंता पज्जवा पण्णत्ता) हे गौतम! अनन्त पर्याय ह्या छे ( से केणट्टेण भंते ! एवं वुच्च जहण्णोगाहणगाणं अणतपएसियाणं अणता पज्जवा पण्णत्ता) हे भगवन् ! शा કારણે એવુ' કહેવાય છે કે જઘન્ય અવગાહનાવાળા અનન્ત પ્રદેશી સ્કન્ધામા અમૃત
SR No.009339
Book TitlePragnapanasutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1196
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size80 MB
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