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प्रमैयबोधिनी टीका पद ५ सू.६ नैरयिकाणां पर्यायनिरूपणम् ६२९ न्यानुत्कृष्टाभिनिधोधिकज्ञान्यपि एवञ्चैव, नवरम् आभिनियोविकज्ञानपर्यवेः स्वस्थाने पट्स्थानपतितः, एवं श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञान्यपि, नवरं यस्य नानानि तस्य अज्ञानानि न सन्ति, यथा ज्ञानानि तथा अज्ञानान्यपि भणितव्यानि, नवरं यस्याज्ञानानि तस्य ज्ञानानि न भवन्ति, जवन्यचक्षुदर्शनीनां भदन्त ! नैरयिकाणां कियन्तः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः, गौतम ! अनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः, तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-जघन्य चक्षुर्दर्शनिको नेरयिको (एवं उक्कोसाभिणियोहियनाणी वि) इसी प्रकार उत्कृष्ट आमिनिबोधिक ज्ञानी (अजहण्ण मणुक्कोसाभिणियोहियणाणी विमध्यम आभिनियोधिकज्ञानी भी (एवं चेच) इसी प्रकार (णवरं) विशेष यह कि (आभिणिवोहियनाणपज्जवेहिं सहाणे छट्ठाणवडिए) अभिनियोधिकज्ञान के पर्यायों से स्वस्थान में षट् स्थानपतित है (एवं सुयनाणी) इसी प्रकार श्रुतज्ञानी (ओहिनाणी वि) अवधिज्ञानी भी (नवरं) विशेष (जस्स नाणा तस्स अण्णाणा नस्थि) जिसे ज्ञान होते हैं उसे अज्ञान नहीं होते (जहा नाणा तहा अण्णाणा वि भाणियव्या) जैसे ज्ञान वैसे अज्ञान भी कहने चाहिए (नवरं जस्स अन्नाणा तस्स नाणा न भवंति) विशेष यह कि जिसे अज्ञान हैं उसे ज्ञान नहीं होते।
(जहण्ण चक्खुदंसणीणं भंते ! नेरइयाणं केवड्या पज्जवा पण्णत्ता ?) जघन्य चक्षुदर्शनी नारक के हे भगवन् ! कितने पर्याय कहे हैं ? (गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता) हे गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं (से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जहण्ण चक्खुदंसणीणं नेरइयाणं साभिणियोहियनाणी वि) ये ४२ ष्ट मालिनिमाधि हानी ५९] (अजण्ण मणुकोसाभिणिवोहियाणाणी वि) मध्यम मालिनिमाधिज्ञानि पy (एवं चेव) से प्र४ारे (नवरं) विशेष के छ ? (आभिणियोहिनाणपज्जवेहिं सदाणे छट्ठाणवडिग) मालि निमाधिज्ञानना पर्यायोथी स्वस्थानमा पट्थान पतित छे (एवं सुयनाणी) थे। प्रमाणे श्रुतज्ञानी (ओहिनाणी वि) सपधिज्ञानी ५ (नवर) विशेष (जन्स नाणा तम्सअण्णाणा नत्थि) ने ज्ञान डाय छेतेने मनान नयी डातु (जहा नाणा तहा अण्णाणा गि भाणियवा) रवी शते ज्ञान ४थन यु छेते शत जाननुपए ४थन ४२
A (नवर जस्स अन्नाणा तस्स नाणा न भवंति) विशेष मेने मान छेतेने शान नथी यतु (जहण्ण चक्खुदंसणीणं भंते ने इयाणं केवड्या पम्जवा पण्णत्ता ?)
धन्य यक्षुशनी ना२३ न। उ सा१न् । छटा पर्याय ४ा छ (गोयमा ' गणेता पज्जवा पण्णत्ता) गौतम ! अनन्त पर्याय ४हा छ (से केण?णं भंते ! एवं बुच्चा