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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ३ सू.६ सूक्ष्मवादरकायद्वारनिरूपणम् ११५ ज्जतगा असंखेन्जगुणा' सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्तका असंख्येयगुणा भवन्ति, तेभ्यो. ऽपि 'मुहुम निगोदा पज्जत्तगा संखेज्जगुणा' सूक्ष्म निगोदाः पर्याप्तकाः संख्येयगुणा भवन्ति, तेभ्योऽपि 'सुहम वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा अणंतगुणा' सूक्ष्मा वनस्पतिकायिका अपर्याप्तका अनन्तगुणा भवन्ति, प्रतिनिगोदमनन्तानां वनस्पतिकायिकानां सद्भावात् तेभ्योऽपि 'मुहम अपज्जत्तगा विसेसाहिया' सूक्ष्मा अपर्याप्तका विशेषाधिका भवन्ति सूक्ष्म पृथिवीकायिकादीनामपि तत्र निवेशात् तेभ्योऽपि 'सुहुम वणस्सइकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा' सूक्ष्म वनस्पतिकायिकाः पर्याप्तकाः संख्पेयगुणा भवन्ति, सूक्ष्मेषु अपर्याप्तेभ्यः पर्याप्तकानां संख्येयगुणत्वात्, तेभ्यः 'सुहुम पज्जत्तगा विसेसाहिया' सूक्ष्म पर्याप्तका विशे पाधिका भवन्ति सूक्ष्म पृथिवीकायिकादीनामपि तत्र समावेशात, तेभ्यः 'सुहमा विसेसाहिया' समाः विशेषाधिका भवन्ति, अपर्याप्तानामपि तत्र समावेशात् इत्याशयः ॥ सु०६॥ निगोद के अपर्याप्तक असंख्यगुणा अधिक हैं, उनकी अपेक्षा सूक्ष्म निगोद के पर्याप्तक संख्यातगुणा अधिक हैं, उनकी अपेक्षा सक्षम वनस्पतिकाय के अपर्याप्त अतन्तगुणा अधिक हैं, क्योंकि प्रत्येक निगोद में अनन्त वनस्पतिकायिक होने हैं। उनकी अपेक्षा भी सूक्ष्म अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि भी सम्मिलित हैं। उनकी अपेक्षा भी सूक्ष्म वनस्पतिकाय के पर्याप्तक संख्यातगुणा हैं, क्यों कि सूक्ष्म जीवों में अपर्याप्तकों से पर्याप्तक संख्यातगुणा अधिक होते हैं । उनकी अपेक्षा भी सूक्ष्म पर्याप्तक समुच्चय जीव विशेपाधिक हैं, क्यों कि उनमें सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि का भी समावेश है और सूक्ष्म जीव उनसे भी कुछ अधिक हैं, क्योंकि उनमें अपर्याप्तकों का भी समावेश है ॥५॥ નિગોદના પર્યાપ્તક સંખ્યાલગણા અધિક છે, તેમની અપેક્ષાએ સૂમ વન સ્પતિકાયના અપર્યાપ્ત અનન્તગણ અધિક છે, કેમકે પ્રત્યેક નિગદમાં અનન્ત વનસ્પતિકાયિક હેય છે, તેમની અપેક્ષાએ પણ સૂકમ અપર્યાપ્તક જીવ વિશેષાધિક છે, કેમકે તેઓમાં સૂમ પૃથ્વીકાયિક આદિ પણ સંમિલિત છે, તેમની અપેક્ષાએ પણ સૂદ્દમ વનસ્પતિકાય પર્યાપ્તક સંખ્યાતગણે છે, કેમકે સક્રમ માં અપર્યાપ્તકેથી પર્યાપ્તક સંખ્યાતગણું અધિક હોય છે તેમની અપેક્ષાએ પણ સૂમ પર્યાપ્તક સમુચ્ચય જીવ વિશેષાધિક છે, કેમકે તેઓમાં સૂમ પૃથ્વીકાયિક આદિનો પણ સમાવેશ છે અને સૂદમ જીવ તેમનાથી કંઈક અધિક છે, કેમકે તેઓમાં અપર્યાપ્તકને પણ સમાવેશ છે સૂર દા
SR No.009339
Book TitlePragnapanasutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1196
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size80 MB
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