SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रज्ञापनासूत्रे ૪ क्रमायुष्कास्ते खलु स्यात् त्रिभागे पारभविकायुष्यं प्रकुर्वन्ति, स्यात् त्रिभागात्रंभागे पारभविकायुकं प्रकुर्वन्ति, स्यात् त्रिभागात्रिभागात्रिभागावशेषायुकाः पारभविकायुष्यं प्रकुर्वन्ति एवं मनुष्या अपि वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका यथा नैरयिकाः, द्वारम् || सू० १५ ॥ " 1 टीका-पूर्वं येषां जीवानां नरकादि गतिषु नानाप्रकारकउत्पादः प्ररूपितस्तै जीव: पूर्वभवे एव वर्तमानैरायुर्वन्धः कृतस्तदनन्तरं परभवे तेपामुपपातो भवति, अन्यथा उपपातासंभवात् तत्र पूर्वभवायुपि कियद भागावशिष्टे सति (तिभागावसेसाउया) आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर ( परभवियाउयं करें ति) पर भव की आयु बांधते हैं । (तत्थ णं जे ते सोवक्कमाउया) उनमें जो सोपक्रम आयु वाले हैं । (ते णं. सियति भागे परभविद्यायं पकरेंति) वे कदाचित् तीसरे भाग में आयु बाँधते हैं । (सिय तिभाग तिभागे परमवियाज्यं पकरें ति) कदाचित् तीसरे भाग के तीसरे भाग में परभव की आयु बांधते हैं । (सिय तिभागतिभागतिभागावसेसाज्या परभवियाउयं पकरेंति) कदाचित् तीसरे भाग के तीसरे भाग का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं । ( एवं मणूसा वि) इसी प्रकार मनुष्य भी । ( वाणमंतर जोइसियवेमाणिया जहा नेरइया) वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक नारकों के समान । द्वार समाप्त ॥ सृ० १५ ॥ टीकार्थ-जिन जीवों का नरक आदि गतियों में नाना प्रकार का उपपात बतलाया गया है, वे जीव जब पूर्वभव में विद्यमान थे तभी अगले भव की आयु का बंध कर चुके थे । तत्पश्चात् ही आगामी भव (तिभागावसेसा उया) आयुत। त्रीले लाग शेष रहेता (परभवियाज्यं पकरें ति) परलवनुं आयुष्य यांचे छे (तत्थ णं जे वे सोवक्कमाच्या) तेयामां ने सोयडभ • मायुवाजा छे (ते णं सिय तिभागे परभवियाजयं पकरें ति) हाथित् भीन्न लागभां परवनुं आयु माघे छे (सिय विभागतिभागे परभवियाउयं पकरे ति) हाथित् त्रिन्न लागना त्रिन लागभा परलवनुं भायु जांघे छे. (सिय तिभागतिभागतिभागाव से खाया प भवियाज्यं पकरेंति) हाथित श्रील लागना त्रीन्न लागनी त्रीले लाग शेष रहेता परलव यु माघे छे ( एवं मणुसा वि) मेन अरे भनुष्येो भए, (वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहाँ नेरइया) वानव्यन्तर, ज्योतिष्ड અને વૈમાનિક નારકના સમાન સમજવા. દ્વાર મમાસા 7 ટીકા :-૨ જીવાના નરક આર્દિ ગતિયામાં નાના પ્રકારના ઉપપાત ખતાન્યા છે, તે જીવા જ્યારે પૂર્વભવમાં વિદ્યમાન હતા ત્યારે આગલા ભવના
SR No.009339
Book TitlePragnapanasutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1196
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy