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________________ ९७६ प्रज्ञापनासूत्रे रमपि उपपद्यन्ते, निरन्तरमपि उपपद्यन्ते, सिद्धाः खलु भवन्त ! किं सान्तरं सिध्यन्ति, निरन्तरं सिध्यन्ति ? गौतम ! सान्तरमपि सिध्यन्ति, निरन्तरमपि सिध्यन्ति ॥ सू० ४|| टीका-अथ तृतीयं सान्तर निरन्तरद्वारमधिकृत्य प्ररूपयितुमाह- 'नेरयाणं भंते ! किं संतरं उववज्जंति, निरंतरं वज्जंति' 'गौतमः पृच्छति' - हे भवन्त ! नैरयिकाः खल कि सान्तरम् - - काल व्यववानेन उपपद्यन्ते, किंवा निरन्तरम् - कालाव्यवधानेन निरखच्छिन्नमित्यर्थः उपपद्यन्ते' भगवान् आह - 'गोयमा ' ग्रैवेयक, उपरितन ग्रैवेयक, विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध विमान के देवों भी (संतरंधि उवजति निरंतरंपि उव वज्र्ज्जति) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं, निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। (सिद्धाणं भंते । किं संतरं सिज्यंनि निरंतरं सिज्यंति) हे भगवन् ! सिद्ध क्या सान्तर सिद्ध होते हैं अथवा निरन्तर सिद्ध होते हैं (गोमा ! संतरंपि सिज्झति, निरंतरंपि सिज्झनि) हे गौतम ! सान्तर भी सिद्ध होते हैं, निरन्तर भी सिद्ध होते हैं टीकार्य - अब तीसरे सान्तर और निरन्तर द्वार के आधार से रूपणा की जाती है गौतमस्वामी प्रश्न करते हैं हे भगवन् ! नारक जीव क्या सान्तर अर्थात् बीच बीच में कुछ समय छोड कर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर अर्थात् लगातार प्रत्येक समय उत्पन्न होते है ? भगवान् हे गौतम ! नारक जीव सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और मानत, आणुत, भारशु, अभ्युत, अधस्तन, अवे, मध्यम ग्रैवेय, परितन ગ્રેવેયક, વિજય, વૈજયન્ત, જયન્ત, અપરાજિત અને સર્વા સિદ્ધ વિમાનના देवे। पशु (संतरं पि ववज्जति, निरंतरं पि ववज्जति) सान्तर पशु उत्पन्न થાય છે, નિરન્તર પણ ઉત્પન્ન થાય છે (सिद्धाणं भंते! किं संवरं सिज्यंति, निरंतर सिझंति) हे भगवन् ! सिद्ध शुं सान्तर सिद्ध थाय छे अथवा निरन्तर सिद्ध थाय हे ? ( गोयमा ! संतरं पि सिज्यंति, निरंतरं पि सिज्यंति) हे गौतम । सान्तर यशु सिद्ध थाय छे, નિરંતર પણ સિદ્ધ થાય છે ટીકા-હૅવે ત્રીજા સાન્તર અને નિરન્તર દ્વારના આધારથી પ્રરૂપણા કરાય છે. શ્રી ગૌતમસ્વામી પ્રશ્ન કરે છે-હે ભગવન્ ! નારક જીવ શુ સાન્તર અર્થાત્ વચમાં વચમાં થોડા સમય છેાડીને ઉત્પન્ન થાય છે. અથવા નિરંતર અર્થાત્ સતત પ્રત્યેક સમયમાં ઉત્પન્ન થાય છે ? શ્રી ભગવાન્—હે ગૌતમ ! નારક જીવ સાન્તર પણ ઉત્પન્ન થાય છે. અને
SR No.009339
Book TitlePragnapanasutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1196
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size80 MB
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