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________________ प्रमेयबोधिनी टीका द्वि. पद २ सू.२९ सिद्धानां स्थानादिकम् ९९१ "विमुक्तो अच्छिज्ज यथा अमृततृप्तः ॥१६७। एवं सर्वकालतृप्ताः अतुलं निर्वाणमुपगताः सिद्धाः । शाश्वतमव्यावाधम् तिष्ठन्ति सुखिनः सुखं प्राप्ताः॥१६८॥ सिद्धा इति बुद्धा इति पारगता इति च । परम्परागता इति उन्मुक्तकर्मकवचाः अजराः असङ्गाश्च ॥१६९॥ निस्तीर्ण सर्वदुःखाः जाति जरामरणवन्धनविमुक्ताः। अव्यावाधं सौख्यम् अनुभवन्ति शाश्वतं सिद्धाः॥१६०॥सू०२९॥ ॥ इति द्वितीय स्थानपदं समाप्तम् ॥२॥ अमृत से तृप्स हो ॥१६७॥ (इय) इसी प्रकार (सव्वकालतित्ता) सर्व काल में तृप्त हैं (अतुलं) अनुपम (निव्वाणमुवगया) निर्वाण को प्राप्त (सिद्धा) सिद्ध' (सासयमव्वावाह) शाश्वत अव्यावाध को (चिट्ठति) ठहरते हैं (सुही) सुखी (सुहं पत्ता) सुख को प्राप्त ॥१६८॥ (सिद्धत्ति य) वे सिद्ध हैं (वुद्धत्ति य) युद्ध हैं (पारगयत्ति य) पारंगत हैं (परंपरगयत्ति) परम्परा गत हैं (उम्मुक्काकस्मकवया) कर्म रूपी कवच से मुक्त हैं (अजरा) जरा से रहित (अमरा) मृत्यु से रहित (असंगा य) और संग से रहित हैं ॥१६९।। ___ (निच्छिन्नसव्वदुक्खा) सब दुःखों से पार हुए (जाइजरामरणयंधणविमुक्का)जन्मजरामरण एवं वन्धन से विमुक्त (अध्याबाई) व्याबाधा से रहित (सोक्खं) सुख को (अणुहोति) अनुभव करते हैं (सासयं) शाश्वत (सिद्धा) सिद्ध ॥१७०॥ ॥ दूसरा स्थान समाप्त ॥ (इय) मे शते (सव्वकालतित्ता) १५ तृH (अतुलं) अनुपम (निब्वाण मुवगया) निर्माणुन पामेसा (सिद्ध) सिद्ध (सासयमव्वावाह) शाश्वत मच्यााधने (चिटुंति) २९ छे (सुही) सुगी (सुहंपत्ता) सुपने पास ॥ १६८ ॥ (सिद्धत्तिय) तेया सिद्ध छ (पुद्धत्तिय) सुद्ध छ (पारगयत्ति य) पात छ (पर परगयत्ति) ५२ ५२सात छे (उम्मुक्ककस्मकवया) ४३पी क्यथा मुस्त छ (अजरा) ४२॥2ी २ (अमरा) मृत्युथी २हित (असंगाय) गने सगथा २हित छ ॥ १६८ ॥ (निच्छिन्न सब्ब दुक्खा) मा हु.पोथी पा२यामीन (जाइजरामरण बंधण विमका) सन्म, ४२१, भ२५ तेभर धनथी विभुत (अव्वाबाधं) पीथी २हित (सोक्खं) सुगने (अणुहोति) अनुभव ४२ छ (सासयं) शाश्वत (सिद्धा) સિદ્ધ છે ૧૭૦ | બીજું સ્થાનપદ સમાપ્ત
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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