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________________ ६०६ प्रास्त्रे प्रज्ञतानि सन्ति, 'तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे, त्रिष्वपि स्थानोपपातसमुद्घातलक्षणेषु त्रिष्वपि स्थानेषु विषये लोकस्य असंख्येयमागे असंख्येयतमे भागे सनत्कुमारदेवानां स्थित्यादिकं वक्तव्यम्, 'तत्थ णं बहवे सणकुमार'देवा परिवसंति' तत्र खलु - उपर्युक्तस्थानेषु वहवः सनत्कुमारदेवाः परिव' सन्ति, ते किं विशिष्टाः सन्तीत्याह - 'महिड्डिया ' महर्द्धिकाः, 'जाब प्रभासेमाणा विहरंति' यात्रत् - महाद्युतिकाः, महायशसः, महाबलाः, महानुभागाः, महासौख्याः हारविराजितवक्षसः, कटक त्रुटितस्तम्भितभुजाः, अङ्गदकुण्डलम्निरावरण कान्ति वाले हैं। प्रभायुक्त, शोभायुक्त, प्रकाशोपेत, प्रसन्नताप्रद, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं । इन विमानों के बिलकुल बीचोंबीच पांच अवतंसक कहे गए हैं । वे इस प्रकार हैंअशोकावतंसक, सप्तपर्णावतंसक, चम्पकावतंसक, आम्रावतंसक और इन चारों के बीच में सनत्कुमारावतंसक | ये पांचों अवतंसक सर्व-रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् - चिकने, कोमल, घृष्ट, पृष्ट, नीरज, निर्मल, निष्क, निरोवरण छाया वाले, प्रभामय, श्रीसम्पन्न, प्रकाशोपेत, प्रसन्नताप्रद, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं । यहाँ पर्याप्त और अपर्याप्त सनत्कुमार देवों के स्थान प्ररूपित किये गए हैं । ये स्थान स्वस्थान, उपपात और समुद्घात, तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्य भाग में हैं। वहां बहुत-से सनत्कुमार देव निवास करते हैं । वे देव महार्दिक हैं यावत् दशों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए रहते हैं । 'यावत्' शब्द से महाबुति वाले, महा शोला युक्त. प्राशोपेत, प्रसन्नताग्रह, दर्शनीय, अलिय भने प्रतिय छे. - તે વિમાનાના મિલકુલ વચ્ચેાવચ પાચ અવતસક કહેલા છે. તે આ પ્રકારે છે અશેકાવત...સક, સપ્તપર્ણાવત સ, ચમ્પકાવત...સક, આસ્રાવત સક અને એ ચારેની વચમાં સનત્કુમારાવત...સક કહેલ છે. આ પાચે અવતસકેા સર્વીરત્નમય છે. स्वच्छ छे. यावत् शिशा, असण, घृष्ट, सृष्ट, नीरन, निर्भस, निष्य निरावरण, प्रलाभय, श्रीसंपन्न, प्राशोपेस, प्रसन्नताग्रह, दर्शनीय अलिइय અને પ્રતિરૂપ છે. અહિ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત સનત્સુમાર દેવાના સ્થાન પ્રરૂ પિત કરેલા છે. આ સ્થાન સ્વસ્થાન, ઉપપાત, અને સમુદ્ઘાત ત્રણેની અપેક્ષા એથી લેાકના અસ`ખ્યતમાભગમાં છે. ત્યાં ઘણા બધા સનકુમાર દેવા નિવાસ કરે છે. તે દેવા મહધિક છે. ચાવત્ દશેદિશાઆને પ્રકાશિત કરતા થકા રહે छे, यावत् शब्दथी भड्डाधुतिवाजा, भडायशवाजी, भड्डाणजवाजा, भड्डाअनुलाग વાળા મહાસુખવાળા, હારથી સુશૅાભિત વક્ષસ્થલવાળા, કટકે તેમજ વ્રુતિ
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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