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________________ प्रबोधिनी टीका द्वि. पद २ सू.२२ पिशाच देवानां स्थानान ८२९ असंख्येयभौमेयनगरावासशतसहस्रादीनाम् आधिपत्यादिकं कारयन्तः पालयन्तोमहताऽहत नृत्यगीतवादिततन्त्रीतलताल त्रुटितधनमृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जाना विहरन्ति आसते इत्याशयः, यथा दाक्षिणात्यपिशाचेन्द्रकालवक्तव्यताप्ररूपयितुमाह-'काले एत्थ पिसार्थिदे' काल: अत्र पिशाचेन्द्रः 'पिसायराया' पिशाचराजः 'परिवसर' परिवसति, स च पिशाचेन्द्रः काल : ' सहिडीए जाव पभासेमाणे' महर्द्धिकः यावत्-महाद्युतिकः महायशाः, महाबलः, महानुभागः, महासौख्यः, हारविराजितवक्षाः, कटक त्रुटितस्तम्भितथुजः, अङ्गदकुण्डलपृष्टगण्डस्तल कर्णपीठधारी, विचित्र हस्ताभरणः, विचित्रमालामौलिः, कल्याणकप्रवरवस्त्रदेदीप्यमान होती है । लम्बी वनमाला के धारक होते हैं । वे अपने दिव्य वर्ण और गन्ध आदि से दशों दिशाओं को उद्योतित और प्रकाशित करते हुए, अपने-अपने असंख्य लाख भौमेय नगरावासों आदि का अधिपतित्व करते हुए, उनका पालन करते हुए, नृत्य, गीत तथा कुशल वादको द्वारा बजाये गए बीणा, तल, ताल, त्रुटित एवं मृदंग आदि वाद्यो की निरन्तर होने वाली ध्वनि के साथ दिव्य भोगोपभोगों को भोगते रहते हैं । अब दक्षिण दिशा के पिशाचेन्द्र काल की वक्तव्यता प्रारंभ की जाती है - यहाँ काल नामक पिशाचेन्द्र, पिशाच राजा निवास करता है | वह पिशाचन्द्र काल महान् ऋद्धि का धारक है, महायुति है, महायशस्वी है, महाबल है, महानुभाग है, महासुखवान् है । उसका वक्षस्थल हार से सुशोभित रहता है । उसकी भुजाएं कटकों और त्रुटि नामक बाहु के आभूषणो से स्तब्ध रहती है । वह अंगद દિશાઓને ઉદ્યોતિત અને પ્રકાશિત કરતા રહિને પેતપેાતાના અસંખ્ય લાખ ભૌમેય નગરાવાસે આદિના અધિપતિત્વ કરતા તેમનુ પાલન કરતા નૃત્ય ગીત તથા કુશલવાદકા દ્વારા વગાડેલ વીણા તલ તાલ ત્રુટિત તેમજ મૃદ ગ આદિ વાદ્યો ના નિરન્તર થનાર ધ્વનિના શ્રવણુ સાથે દિવ્ય ભાગેાપભાગે ભેગવતા રહે છે. f હવે દક્ષિણ દિશાના પિશાચેન્દ્ર કાલની વક્તવ્યતાના પ્રાર ભ કરાય છે અહિં કાલનામક પિશાચેન્દ્ર, પિશાચ રાજા નિવાસ કરે છે. તે પિશાચેન્દ્ર કાલ महान् ३द्विना धार४ छे. भडाबुति वाणा छे, भड्डा यशस्वी छे, भडास छे, મહાનુભાગ છે. મહાસુખવાનૢ છે તેમનુ વક્ષસ્થલ હારથી સુશાભિત રહે છે તેમની ભુજાએ કટકા અને ત્રુટિત નામના બાહુના આભૂષણાથી સ્તબ્ધ રહે
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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