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________________ ७०२ प्रज्ञापनासूत्र भवनावासशतसहस्राणि-चतुष्पष्टिलक्षभवनावासा भवन्ति इति आख्यातम् - कथितम् मया महावीरेण, अन्यैस्तीर्यद्भिश्चेत्याशयः, अथ तद् भवनस्वरूपमाह-'तेणं भत्रणा बाहिं वहा अंतो चउरंसा' तानि खलु चतुष्पष्टिर्भवनानि वहिर्मागे, वृत्तानि-वर्तुलानि, अन्तः-मध्ये, आभ्यन्तरे इत्यर्थः, चतुरस्राणि-समचतुरस्राकाराणि, 'अहे पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिया' अधः-अधस्तनभागे पुष्करकर्णिका संस्थानसंस्थितानि तत्र कणिका खलु उन्नत समचित्रविन्दुकिनीरूपा वोध्या, पुष्करस्य-कमलस्य या कर्णिका तस्याः संस्थानम्-आकारस्तेन संस्थितानि-व्यवस्थितानि इत्यर्थः, 'उक्किण्णंतरविउलगंभीरखायफलिहा' उत्कीर्णान्तरविपुलगम्भीरखातपरिखाणि, उत्कीर्णमिव उत्कीर्णमतीवव्यक्तमित्यर्थः, उत्कीर्णमन्तरं यासां खातपरिखाणाम् ता उत्कीर्णान्तराः खातपरिखाः खाताश्च - परिखाश्चेति खातपरिखाः, उत्कीर्णान्तरा:-विपुला:-विस्तीर्णाः, प्रचुरा वा, गम्भीराः-अलब्धमध्यभागाः खातपरिखा येपां भरनानां परितस्तानि उत्कर्णान्तरविपुलगम्भीरखातपरिखानि, तत्र परिखानाम उपरिविशाला अधः संकुचिता भवति, खातन्तु उभयत्रापि सममिति उभयोः परस्परं विशेषः, 'पागारट्टालयकवाड - तोरणपडिदुवारदेसभागा' प्रकाराहालककपाटतोरण प्रतिद्वारदेशभागानि प्रति- लाख भवनावास हैं, ऐसा मैंने तथा अन्य तीर्थकरों ने कहा है। उन भवनों का वर्णन इस प्रकार है___ असुरकुमारों के वे भवन बाहर से वर्तुलाकार हैं, भीतर से चौकोर हैं और नीचे पुष्कर की कर्णिका के आकार के हैं । कणिका उन्नत एवं समान :चित्र-विचित्र विन्दु रूप समझनी चाहिए । उन भवनों के चारो ओर खाइयां और परिखाएं हैं, जिनका अन्तर स्पष्ट - प्रतीत होता है । वे इतनी गहरी हैं कि उनके मध्यभाग का पता नहीं लगता। इनमें जो ऊपर चौडी हो और नीचे संकडी हो वह परिखा कहलाती है और ऊपर-नीचे समान हो उसे खात (खाई) कहते हैं। यही परिखा और खाई में अन्तर है । प्रत्येक भवन में प्राकार, साल, અસુરકુમારના તે ભવન બહારથી ગેળ છે, અંદર થી ચોરસ છે અને નીચે પુષ્કર (કમળ) ની કણિકાના આકારના છે. કર્ણિક ઉન્નત તેમજ સમાન ચિત્ર વિચિત્ર બીન્દુરૂપ સમજવી જોઈએ. તે ભવનોની ચારે બાજુએ ખાઈઓ અને પરિખાઓ છે. તે એટલી ઊંડી છે કે તેમના મધ્ય ભાગને પત્તો નથી લાગતો, તેમાં જે ઊપરથી પહોળી હોય અને નીચેથી સાકડી હોય તે પરિખાં કહેવાય છે અને જે ઉપર નીચે સમાન હોય તેને ખાત કહે છે. આજ પરિખા અને ખાઈમાં તફાવત છે પ્રત્યેક વનમાં પ્રાકાર, સાલ, અટ્ટાલક, કપાટ, તેરણું
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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