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________________ ४२६ प्रशापनासूत्रे अथ के ते अकर्मभूमकाः १ अकर्मभूमिका स्त्रिंशद्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पञ्चभिहै मवतैः ५ पञ्चभिहैं रण्यवतैः ५ पञ्चभिर्हरिवः५ पञ्चभीरम्यकव: ५ पञ्चभिदेवकुरुभिः५ पञ्चभिरुत्तरकुरुभिः ५।६४५-३०। ते एते अकर्मभूमकाः ॥सू०३६।। टीका-अथ गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यान् प्ररूपयितुमाह-'से किं तं गम्भववतियमणुस्सा ?' 'से' अथ 'किं तं' के ते, कतिविधा इत्यर्थः, गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्या! प्रज्ञप्ता ? भगवानाह-'गम्भवक्कंतियमणुस्सा तिविहा पण्णत्ता'-गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याः, त्रिविधा प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा'-तद्यथा-'कम्मभूमगा' कर्मभूमकाः १ 'अकम्मभूमगा-अकर्मभूमकाः २ 'अंतरदीवगा' अन्तरद्वीपकाश्च ३। तत्र कर्म भूमकपदव्युत्पत्तिमाह-कृषिवाणिज्यप्रभृति, मुक्तिमार्गानुष्ठान वा कर्म तत्प्रधाना भूमियेषां ते कर्मभूमाः, आपत्वात्समासान्तोऽचप्रत्ययः, कर्मभूमा एव कर्मभूमकाः, अथाकर्मभूमकपदव्युत्पत्तिमाह-अकर्मा-पूर्वोक्तकमरहिता भूमिवएहिं) पांच हैरण्यवत क्षेत्रों में (पंचहि हरिवाहि) पांच हरिवर्ष क्षेत्रों में (पंचहिं रम्मकवासेहिं) पांच रम्यकपर्व क्षेत्रों में (पंचहिं देवकुरुहि) पांच देवकुरु क्षेत्रों में (पंचहिं उत्तरकुरुहिं) पांच उत्तरकुरु क्षेत्रों में (से तं अकम्मभूमगा) यह अकर्मभूमिज मनुष्यों की प्ररूपणा हुई ॥३६॥ टीकार्थ-अब गर्भज मनुष्यों की प्ररूपणा प्रारंभ करते हैं । गर्भज मनुष्य कितने प्रकार के कहे गए हैं ? भगवान् उत्तर देते हैं गर्भज मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं। वे ये हैं-(१) कर्मभूमक (२) अकर्मभूमक और (३) अन्तर्वीपज। यहां कृषि, वाणिज्य आदि जीवन निर्वाह के कार्यो को तथा मोक्ष मार्ग की आराधना को 'कर्म' कहा गया हैं । जो कर्मप्रधान भूमि में रहते हैं या उत्पन्न होते हैं, वे मनुष्य 'कर्मभूमि कहलाते हैं । आर्ष छे (त जहा) तेथे। 20 ४२ छ (पंचहिं हेमवएहिं) पाय डेभक्त क्षेत्रामा (पंचहि हेरण्णवाहि) पाय २९यवत क्षेत्रमा (पंचहि हरिखासेहिं) पाय विवर्ष क्षेत्रमा (पचहिं रम्मकवासेहिं) पाय २२५४ मा (पंचहिं देवकुरूहिं) पांय हेय ३ क्षेत्रमा (पंचहिं उत्तरकुरुहि) पाय उत्तर ७३क्षेत्रमा (से तं अकम्मभूमगा) मा કર્મભૂમિ જ મનુષ્યની પ્રરૂપણા થઈ. છે સ ૩૬ ટીકાથ-હવે ગર્ભજ મનુષ્યની પ્રરૂપણું પ્રારંભ કરે છે–ગર્ભજ મનુષ્ય કેટલા પ્રકારના કહેલા છે. શ્રી ભગવાન ઉત્તર આપે છે–ગર્ભજ મનુષ્ય ત્રણ પ્રકારના હોય છે તે मा रीते छ (१) भभूम (२) २५भभूम (3) Ardsी ५४. मी ती, વાણિજ્ય, વિગેરે જીવન નિર્વાહના કાર્યોને અને મોક્ષ માગની આરાધનાને
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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