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________________ प्रमेयबोधिनी टीका स्.२ महावीर स्वामिवन्दनकारणमदर्शनम् __ अन्वयः-भविकजननिवृतिकरेण भगवता जिनवरेण श्रुतरत्ननिधानं सर्वभावानां प्रज्ञापना उपदर्शिता। ____टीका--तत्र जिनवरेण जिनाः सामान्यकेवलिन स्तेपामपि वरः श्रेष्ठस्तीर्यकरत्वात् जिनवरस्तेन आसन्नोपकारित्वाद् महावीरेणेत्यर्थः अन्यस्य केवलिनो वर्तमानतीर्थाधिपतित्वाभावात्, अथ छद्मस्थक्षीणमोहजिना पेक्षया सामान्यकेवलिनामपि जिनवरत्वात् तव्यावृत्तये महावीरस्य तीर्थकृत्वप्रतिपत्तये च विशेषणान्तरमाह-भगवता भगः समग्रैश्वर्यादिरूपः, तथाचोक्तम्वरेणं) जिनवर के द्वारा (भवियजणनिव्वुइकरेणं) भव्य जीवोंको आनन्द या मोक्ष देने वाले (उवदंसिया) दिखलाई (भगवया) भगवान् के द्वारा (पन्नवणा) प्रज्ञापना-प्ररूपणा (सव्व भावार्ण)सव पदार्थो की ।२। ____ भावार्थ-भव्य जीवों को अमर या मोक्ष प्रदान करने वाले जिनेन्द्र भगवान ने श्रुत रूपी रत्नों के खजानेके समान समस्त भावों की प्रज्ञापना प्रदर्शित की है ॥ २॥ ___टीकार्थ:-जिन अर्थात् सामान्य केवली उनमें तीर्थकर होने के कारण जो श्रेष्ठ हैं वे जिनवर कहलाते हैं। उन्होंने अर्थात् निकट उ. पकारक होने के कारण महावीर स्वामी ने क्योकि अन्य तीर्थकर वत्तमान तीर्थ के अधिपति नहीं है। कहा जा सकता है कि छद्मस्थ क्षीण मोह जिनकी अपेक्षा सामान्य केवली भी जिनवर कहे जा सकते हैं, अतएव जिनवर शब्दसे तीर्थंकर का अर्थ कैसे समझा जाय ? इसका समाधान करने के लिए तथा महावीर स्वामी सामान्य केवली ५२ ना १ (भवियजणनिव्वुइकरेण) सव्य यौन मान मथ। मोक्ष मा५५ पास (उवदसिया) गाडी (भगवया) मावान द्वा२। (पन्नवणा) प्रज्ञापना प्र३५। (सव्व भावाण) या पानी ॥ २॥ ભાવાર્થ—ભવ્ય જીવોને આનન્દ અથવા મોક્ષ પ્રદાન કરવા વાળા જિનેન્દ્ર ભગવાન શ્રત રૂપી રત્નોની ખાનાના સરખી સમસ્ત ભાવેની પ્રજ્ઞાપના प्रशित ४२री छ ॥ २ ॥ ટીકાથ-જિન અર્થાત્ સામાન્ય કેવલી એઓમાં તીર્થકર થવાના કારણે જેઓ શ્રેષ્ઠ છે તેઓ જિનવર કહેવાય છે. તેઓએ અર્થાત્ નિકટ ઉપકારક હોવાના કારણે મહાવીર સ્વામીને કેમકે અન્ય તીર્થકર વર્તમાન તીર્થના અધિપતિ નથી. કહી શકાય કે ધસ્થ ક્ષીણમેહ જેઓની અપેક્ષાએ સામાન્ય કેવલી પણ જિનવર કહી શકાય છે. તે પછી જિનવર શબ્દથી તીર્થકર નો અર્થ કેવી રીતે સમજાય ? એનું સમાધાન કરવા માટે તેમજ મહાવીર સ્વામી
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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