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________________ ३२० प्रशापनास्त्रे प्रत्येकं द्विविधानि, तद्यथा-कानिचित् 'पिंटबद्धा य'-वृन्तबद्धानि च अतिमुक्तक प्रभृतीनि, कानिचित्तु 'नालबद्धा य-नालबद्धानि-जातिपुष्पप्रभृतीनि, अत्रैतेषां मध्ये कानिचित् पत्रादिगत जीवापेक्षया-'संखिज्ज'-संख्येयजीवानि भवन्ति, कानिचित्तु 'असंसिज्जा'-असंख्येयजीवानि कानिचत्तु 'योद्धच्या' योद्धयानि 'अणंतजीवा य' अनन्तजीवानि च, तानि च यथाऽऽगममबसेयानि, अत्रैव कश्चिद विशेपमाह--'जे केइ नालिया बद्धा पुप्फा संखिज्जजीविया भणिया। निहुया अणंतजीवा जे यावण्णे तहाव्हिा ॥८३|| 'जे केद'-यानि कानिचित् 'नालियावद्धा-नालिकाबद्धानि 'पुप्फा'-पुप्पाणि जात्यादिगतानि भवन्ति, तानि सर्वाण्यपि 'संखिज्जजीविया' संख्यातजीवकानि 'भणिया' भणितानि तीर्थकरगणधरैः, 'निहुया'-रिनहुकानि-स्बुही-स्निह पुप्पाणि 'शूअर' इतिभाषाप्रसिद्धानि, पुनः 'अणतजीया' अनन्त जीवानि भणितानि 'जे यावन्ने तहाविहा'-यान्यपि चान्यानि स्निहपुष्पसदृशानि पुप्पाणि भवन्ति, तान्यपि तथाविधानि-अनन्तजीवात्मकानि ज्ञातव्यानि 'पउमुप्प लिणीकंदे अंतरकंदे तहेव झिल्ली य । एए अणंतजीवा एगो जीवो बिसमुणाले' ॥८४|| 'पउमुप्पलिणी (जल से उत्पन्न होने वाले कमल आदिके), स्थलज (कोरंट आदि स्थल में उत्पन्न होने वाले), इन दोनों प्रकार के पुष्पों के भी दो-दो भेद हैं-कोई-कोई वृन्तबद्ध और कोई-कोई नालबद्ध होते हैं । अतिमुक्तक आदि वृन्तबद्ध और जाई के फूल आदि नालबद्ध होते हैं। इन पुष्पों में से पत्रगत जीवों की अपेक्षा कोई-कोई संख्यात जीवों वाले, कोई-कोई असंख्यात जीवों वाले होते हैं और कोई-कोई अनन्त जीवों वाले भी होते हैं । आगम के अनुसार उन्हें समझलेना चाहिए। __इसी विषय में कुछ विशेषता और बतलाते हैं-जो जाई आदि के पुष्प नालबद्ध होते हैं, वे सभी संख्यात जीचों वाले कहे गए हैं। मगर स्तुही अर्थात् थूअर का पुष्प अनन्त जीवों वाला होता है, પણ બબ્બે ભેદ છે. કોઈ કે તે વૃતબદ્ધ અને કઈ કઈ નાલ બદ્ધ હોય છે. અતિમુક્ત વૃતબદ્ધ અને જાઈના કુલ વિગેરે નાલ બદ્ધ હોય છે. આ પુષ્પ માંથી પત્ર ગત જીવની અપેક્ષાએ કોઈ કઈ અસંખ્યાત જી વાળા તે કઈ કઈ સંખ્યાત જીવો વાળાં હોય છે. અને કઈ કઈ અનન્ત જી વાળા પણ હેય છે. આગમના કથન અનુસાર તેમને સમજી લેવા જોઈએ. આ વિષયમાં કાઈક વિશેષતા બતાવે છે-જે જઈ વિગેરેના પુપે નાલ બદ્ધ હોય છે તે બધા સ યાતજી વાળાં કહેવાય છે. પરંતુ સ્તુહી અર્થાત્ थूम२ (था२) ना ५७५ अनन्त वाणा हाय छे सेम टु छे. सान.
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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