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________________ २५९ trafat टीका प्र. पद १ सू.१९ समेदवनस्पति कार्यनिरूपणम् प्रसिद्धा वर्तन्ते, ताथ यथा प्रसिद्धि स्वयसूहनीयाः, 'कच्छुभरि पिप्पलिया अतसी विल्ली कमाईया । बुच्चू पडोलकंदे विउवा वत्थलंदेरे |१९|| कस्तुम्भरी, पिप्पलिका, अतसी, विल्वी च काय्यादिका । बुच्चूः, पटोलकन्दः विकुर्वा, वन्दे ॥ १९ ॥ एते चापि कस्तुम्भरी प्रभृतयो देशविशेषे प्रसिद्धाः स्वयमूहनीयाः, 'पत्तउर सीय उरए हवइ तहा जवसए य वोद्धव्वे । णिग्गुमिअंक तरि अत्थई चैव तल उदाडा' ॥ २० ॥ पत्र पूरः, शीतपूरको भवति तथा जवसकश्च वोद्धव्याः । निल्गुः, मृगाङ्कः, तवरी, अस्तकी, चैव तल उदाडा' एते च पत्रपूरादयो गुच्छपदवाच्या देशविशेषे प्रसिद्धाः सन्ति, ते च यथायथं स्वयमूहनीयाः, 'सणपाणका समुहग अग्वाडग सामसिंदवारेय । करमद अद्दड्सगकरीरए रावण महित्थे ||२१|| शण- पाण-काश - मुद्रक - आघातक - श्याम - सिन्दुवाराश्र । करमर्द अई सक- करीर - ऐरावण महित्थाः एषु चापि गुच्छकपदवाच्याः केचन शणकाशप्रभृतयः प्रसिद्धा एव सन्ति, पाणमुद्रक प्रभृतयस्तु देशविशेषे प्रसिद्धाः तियों में से कोई कोई तो प्रसिद्ध ही हैं, शल्यकी थुपडकी आदि कोई - कोई किसी विशेष प्रदेश में प्रसिद्ध हैं । इन्हें प्रसिद्धि के अनुसार ही समझलेना चाहिये । इसी प्रकार कस्तुम्भरी, पिप्पलिका, अतली, बिल्वी, काय्यादिका, चुच्चू, पटोलकन्द, विकुर्वा, वस्त्रलन्देर भी विशिष्ट प्रदेशों में प्रसिद्ध हैं । इन्हें भी स्वयं समझ लेना चाहिये । पत्रपूर, शीतपूरक जवसक, निलगु, मृगांक, तबरी, अस्तकी, तलउदाडा, यह भी देश - देश में प्रसिद्ध हैं । इन्हें भी स्वयं समझ लेना चाहिये । शण, पाण, काश, मुद्रक, आघातक, श्याम, सिन्दुवार, करमर्द, अर्द्धसक, करीर, ऐरावण और महित्य, इनमें से शण, काश, अडूसा, कैर आदि प्रसिद्ध हैं । पाण, शुद्र आदि किसी विशिष्ट प्रदेश में प्रसिद्ध हैं, इन्हें भी यथायोग्य स्वयं ही समझ लेना चाहिए । કાઇ તા પ્રસિદ્ધ છે. શલ્યકી, ભુવડી વિગેરે કાઈ કાઈ ખાસ પ્રદેશમા પ્રસિદ્ધ છે. તેને પ્રસિદ્ધિ અનુસાર જ સમજી લેવા જોઇએ. मे रीते प्रस्तुलरी विय्यसिडा, मतली, मिट्टी, अटयाहिश, वुभ्यू, પટાલાકન્દ, વિૉ, વસ્ત્રાન્તર, પણ વિવિધ પ્રદેશોમા પ્રસિદ્ધ છે. તેઓને પણ યથા ચેાગ્ય નતેજ સમજી લેવા જોઇએ. शशु, पालु, डाश, मुद्रट्ट, आघात, श्याम, सिन्दुवार, २६ अस १२, रावण ने महित्य, तमोभाधी शत्रु, अश, अरडुसा, विगेरे प्रसिद्ध છે, પાણ, મુદ્રક, આદિ વિશિષ્ટ પ્રદેશમા પ્રસિદ્ધ છે, તેઓને પણ યથા ચેાગ્ય જાતેજ સમજી લેવા જોઇએ,
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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