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________________ २४४ प्रचापनासूत्रे. " य' पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतियिकाथ, अपर्याप्तसूक्ष्मवनस्पतिकायिकाच, तत्र पर्याप्तकाः - पर्याप्तिमन्तश्च ते सूक्ष्मायेति पर्याप्तक सूक्ष्मास्ते च ते वनस्पतिकायिका:, तद्भिन्ना एव अपर्याप्तसूक्ष्मवनस्पतिकायिका उच्यन्ते, प्रकृतमुपसंहरन्नाह - 'सेतं हुमवणस्सइकाइया' ते एते पूर्वोक्ताः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः लोकत्रयवर्तिनः कज्जलकूपिकावत् संभृताः सन्ति व्यपदिश्यन्ते, अथ-वादरवन - स्पतिकायिकप्रकारान् प्ररूपयितुमाह-' से किं तं वायरवणस्सइकाइया' 'से' अर्थ 'किं तं' के ते कतिविधा इत्यर्थः वादरवनस्पतिकायिकाः-स्थूलवनस्पतिकायिकाः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह - 'वायरवणस्स इकाइया दुविधा पण्णत्ता' वादरवनस्पतिकायिकाः द्विविधाः - द्विप्रकारकाः प्रज्ञप्ताः - उक्ताः, 'तं जहा - तद्यथा'पत्तेयसरीर वायरवणस्स इकाइया, साहारणसरीवायरवणस्सइकाइया' प्रत्येक शरीर बादरवनस्पतिकायिकाथ, साधारण शरीर वादरवनस्पतिकायिकाच, तत्र लाते हैं और जो अपनी पर्याप्तियां पूरी न कर पाए हों वे अपर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक कहलाते हैं । 37 उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं- ये सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों की प्ररूपणा हुई जो तीनों लोकों में ऐसे व्याप्त हैं जैसे काजल की डिबिया में काजल भरा रहता है । अब बादर वनस्पतिकायिकों की प्ररूपणा करते हैं - बादर वनस्पतिकायिक जीव कितने प्रकार के हैं ? भगवान् ने उत्तर दिया- चादर वनस्पतिकायिक जीव भी दो प्रकार के हैं । प्रत्येक शरीर बादर वनस्पति कायिक और साधारण शरीर वादर वनस्पतिकायिक | जिन वनस्पतिकायिक जीवों का शरीर प्रत्येक होता है - अलग-अलग होता है वे प्रत्येक शरीर कहलाते हैं अर्थात् एक शरीर में एक जीव हो છે અને જેઓ પોતાની પર્યાપ્તિએ પૂર્ણ ન કરી શકયા હૈાય તે અપર્યાસ સૂક્ષ્મ વનસ્પતિકાયિક કહેવાય છે? ઉપસ હાર કરતા હવે સૂત્રકાર કહે છે–આ સૂક્ષ્મ વનસ્પતિ જીવેાની પ્રરૂપણા થઇ તેઓ ત્રણે લેાકમાં વ્યાપ્ત છે, જેમ કાજળની ડખ્ખીમા કાજળ ભર્યુ રહે છે. હવે માદર વનસ્પતિકાયિકાની પ્રરૂપણા કરે છે—ખાર વનસ્પતિકાયિક જીવ કેટલા પ્રકારના છે ? त શ્રી ભગવાને ઉત્તર આપ્યુંા-માદર વનસ્પતિકાયિક જીવ પણ એ પ્રકારના છે. પ્રત્યેક શરીર ખાદર વનસ્પતિકાયિક. અને સાધારણુ શરીર ખાદર વનસ્પતિ કાયિક,
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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