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________________ प्रमेययोधिनी टीका प्र. पद १ सू.१० जीवप्रज्ञापना न्यायेनैवाभिहिता विजेया, अन्यथा सूक्ष्मेक्षिकया निरीक्षणे तु प्रत्येकमप्येतेषां तारतम्येनानन्तत्वात् अनन्ता एव विकल्पाः संभवन्ति, एतेपाञ्च वर्णादि परिणामानां जयन्येनाऽवस्थानम् एकं समयम् उत्कृष्टेन तु असंख्येयं कालम् । प्रकृतमुपसंहरनाह-'से तं रूवि अजीवपन्नवणा, से तं अजीवपण्णवणा' सा एपा उपर्युक्तरीत्या प्रतिपादिता, रूप्यजीवप्रज्ञापना अवसेया, सा एपा अजीवनज्ञापना प्रोता, इत्याशयः ॥सू० ९॥ मूलम्-से किं तं जीवपन्नवणा ? जीव पन्नवणा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-संसारसमावपण जीवपन्नवणा य १, असंसारसमावण जीवपन्नवणा य २, ॥सू० १०॥ छाया-अथ का सा जीवप्रज्ञापना ? जीवप्रज्ञापना द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथासंसारसमापनजीवप्रज्ञापना च१, असंसारसमापन्नजीवनज्ञापना च ।। ० १०॥ सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो इनमें से तरतमता की अपेक्षा से प्रत्येक के अनन्त भेद होने के कारण अनन्त विकल्प हो सकते हैं। वर्ण आदि परिणाम जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक रहता है । अव उपसंहार करते हुए कहते हैं-यह उपर्युक्त रूपी अजीब की प्ररूपणा हई और अजीव की भी प्ररूपणा हो गई॥स्त्र ॥ शब्दार्थ-(से) अथ-अथ (किं) क्या (त) वह (जीवपन्नवणा) जीव की प्ररूपणा (जीवपण्णवणा दुविहा) जीवप्रज्ञापना दो प्रकार की (पन्नत्ता) बतलाई गई है (नं जहा) वह इस प्रकार (संसारसमावन्नजीवपन्नवणा) संसारी जीवों की प्ररूपणा (य) और (असंसार समाજોઈએ સૂમ દષ્ટિએ જોવામાં આવે તેમાથી તારતમ્યતાની અપેક્ષાએ પ્રત્યેકના અનન્ત ભેદ બનવાના કારણે અનન્ત વિકફપ બની શકે છે. વર્ણ આદિ પરિણામ જઘન્ય એક સમય અને ઉત્કૃષ્ટ અસ ખ્ય સમય सुधी २९ छ. હવે ઉપસંહાર કરતાં કહે છે આ ઉપર કહેલી રૂપી અજીવની પ્રરૂપણા થઈ અને અજીવની પણ પ્રરૂપણું સંપૂર્ણ થઈ ગઈ છે સૂત્ર. ૯ છે हाथ-(से) अथ-वे (कि) शु (त) ते (जीवपण्णवणा) अपनी प्र३५ (जीव पण्णवण्णा दुविहा) प्रज्ञापन में प्रा२नी (पन्नत्ता) मतापी छ (तं जहा)ते २॥ ४॥ छ (संसारसमावन्नजीवपण्णवणा) से सारी यानी प्र३५|मने. (असंसारसमावन्तजीवपन्नवणा) भुत यानी प्र३५ ॥ सु. १० ॥
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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