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________________ ૧૪ जीवाभिगमसूत्रे खवित्ता पभू - तमेव - अणुपरिवट्टित्ताणं - गिण्डित्तए ? हंता - गोयमा ! पभू० ' हे भदन्त ! महर्द्धिको महाद्युतिको - महावलो - महा सौख्यः महायशाः - महानुभागो देवः स खलु स्वगमनात्प्रागेव लोष्टादि पुद्गलं प्रक्षिप्य ततः परं जम्बू मनुप्रदक्षिणी कुर्वन् यदीच्छेत्तं पुद्गलं क्षिप्तं भूमापतितं सन्तं तदन्तराले धावमानो धर्तुं तदा किं तथाकर्तुं शक्नुयात् ? भगवानाह - हन्त - गौतम ! प्रभुः । ' से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ - देवे णं महड्डिए जाव हित्तए ? गोयमा ! पोग्गले खित्ते समाणे पुव्यामेव सीग्धगई भविता - तओ पच्छा मंदगई भवई, देवेनं महिडिए जाव महाभागेपुपि पच्छावि सी सी गई (तुरिए तुरियगई) चेव से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ जाव एवं अणुपरियट्टित्ताणं गेव्हित्तए' तत्केनार्थेन भदन्त ! कथं जाव महाणुभागे पुग्वामेव पोग्गलं खवित्ता' हे भदन्त ! महर्द्धिक, यावत्-महाद्युतिक, महासुखी, महायशस्वी, एवं महाप्रभावशाली कोई देव प्रदक्षिणा लगाने से पहिले पत्थर आदि पुद्गल को अपने स्थान से फेंक कर 'पभूतमेव अणुपरिवहित्ताणं गिन्हित्तए' फिर जम्बूदीप की प्रदक्षिणा करे और प्रदक्षिणा करते समय यदि वह चाहे तो उस जमीन तक नहीं पहुंचे हुए पत्थर को बीच में ही - ग्रहण कर सकने में समर्थ हो सकता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'हंता, पभू' हां, गौतम ! वह देव उस समय उस फेंके गए पत्थर को बीच में ही ग्रहण करने में समर्थ हो सकता है 'से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चति देवेणं महिडिए जाव गिव्हित्तए' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि वह महर्द्धिक आदि विशेषणों वाला देव फेंके गये पत्थर को बीच में ही, जम्बूद्वीप की प्रदक्षिणा ढिए जाव महाणुभागे पुब्वामेव पोग्गलं खवित्ता' हे भगवन् भहुर्द्धि४, यावत् મહાદ્યુતિક, મહાસુખી, એવ' મહા પ્રભાવશાલી કાઇ ધ્રુવ પ્રદક્ષિણા કરતાં પહેલાં पत्थर विगेरे युद्दगसोने पोताना स्थान परथी ईडीने 'पभू तमेव अणुपरि वट्टित्तावं गिण्हित्तएँ' ते पछी युद्री पनी अक्षिणा उरे भने प्रदक्षिणा કરતી વખતે જો તે ઇચ્છે તે એ જમીન સુધી ન પડેાચેલા પત્થરને વચમાંજ શું પડી લઇ શકે છે ? અર્થાત્ પકડવામાં સમ થઈ શકે છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरभां प्रलुश्री गौतभस्वाभीने हे छे है- 'हंता पभू' हा गौतम! मे देव मे સમયે એ કુંડેલા પત્થરને વચમાંથી જ પકડી લેવામાં સમથ થઈ શકે છે. 'से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चति देवेणं महिइढिए जाव गिव्हित्तए' हे भगवन् ! આપ એવું શા કારણથી કહેાછે કે-એ મહદ્ધિક વિગેરે વિશેષણા વાળા દેવ ફૂંકવામાં આવેલ પત્થરને જ ખૂદ્વીપની પ્રદક્ષિણા કરતી વખતે વચમાંથી જ
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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