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________________ जीवाभिगमसूत्रे उक्किट्ठिसीहणायबोलकलकलसदेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणा - अच्छपव्त्रयरायं पयाहिणावत्तमंडलयरं मेरुं अणुपरियडंति' ते खलु देवाश्चन्द्रादय मनुष्यक्षेत्रस्थाः देवाः हे गौतम! नो उर्ध्वोपपन्नकाः सौधर्मादिभ्य ऊर्ध्वं नोपपन्नाः, नो कल्पोपपन्नकाः सौधर्मादिपु नोपपन्नाः किन्तु - विमानोपपन्नकाः सामान्यतो विमानोपपन्नाः चारोपपन्नकाश्च नो चारस्थितिका:- चारस्य स्थिति-रभावस्तइन्तो नो, किन्तु - गतिरतिकाः- स्वभावागतौ - गमने रतिः - आसक्तिः तद्वन्तः, गतिसमापन्नकाः - साक्षाद्गतिमन्तः ऊर्ध्वमुखकदम्ब (नालिका) पुप्पस्य गोलाकृतिसंस्थानसंस्थितै यजनसाहस्रिकैस्तापक्षेत्रैः सहस्र संख्याभिः वाद्याभि वैकुर्विकाभिः पर्षद्भिः महताऽऽहत नृत्यगीतवादित्रतन्त्रीतलताल त्रुटितघन मृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिव्यान् अनिर्वचनीयान् तांस्तान् अलौकिकभोगान् भुञ्जन्तो भुजानाः स्वभावतो गतिरतिकै बाह्यपरिपद्गतै देवेंवेगेन गच्छद्विमानेषु महता - उत्कृष्टतः उत्कर्षवशेन सिंहनादस्य (बोलवत्) कल-कलो यः शब्दस्तेन ( वोलो नाम मुखे हस्ताङ्गुलिं निवेश्य महता शब्देन पूत्करणम् तारतार : (सीटी) कलकलः व्याकुलितशब्दसमूहस्तच्छब्देन महत्समुद्रोद्घोषो वोलो भवति) तथा च तद्रवेण याहिं परिसाहिं' उर्ध्वमुख वाले कदम्व पुष्प के जैसे आकार वाले अनेक योजन सहस्र प्रमाण युक्त क्षेत्रों में ये भ्रमण करते हैं साथ में इन बाहिर की विकुर्वित परिषदा के देव रहते हैं 'महया हयनहगीतवादित तंतीतलतालतुडियघणमुगपडुप्पवादितरवेणं' बडे ठाट वाट से नृत्य करते हुए, गीत गाते हुए, वादित तंत्रि ताल त्रुटित आदि वादित्रों को बजाते हुए - वादित्रों के शब्दो से मानों 'उक्किट्ट सीहणायबोल कलकलसद्देण' ये सिंह की जैसी गर्जना न कर रहे हों इस प्रकार से होकर तथा सीटी वजा २ कर - घनघोर शब्द करते हुए 'दिव्वाई भोग भोगाई भुजमाणा' एवं दिव्य भोग भोगों को स्सियाहिं बाहिरियाहि वेउव्वियाहि परिसाहि' या भुभवाजा उहभ्यना पुष्योना જેવા આકારવાળા અનેક ચૈાજન સહસ્રપ્રમાણથી યુક્ત ક્ષેત્રમાં એ ભ્રમણ કરે छे, तेभन तेनी साथै महारना विड्ठुर्वित परिषद्वाना हेव रहे छे. 'महयाहय नट्टगीतवादित तंतीतलतालतुडियघणमुइंग पडुप्पवादितरवेणं' धान हाउभाउथी नाथ કરતા એવા, ગીતગાતા એવા, વાજીંત્ર તંત્રી તલ તાલ ત્રુટિત વિગેરે पालुत्रो बगाडता मेवा मे बालुत्राना शब्डोथील 'उक्किट्ठसीहणायबोलकलकल सद्देण' तेथे। सिंहना लेवी भो ! गर्भनाओ न ४२ता होय ? शेवी रीते શખ્ખા કરતા થકા તથા સીટી વગાડી વગાડીને ઘન ઘેાર શખ્તો કરતા કરતાં 'दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा' तथा हिव्य मेवा लोग लोगवता थ। ' अच्छय · ૯૮૮ t
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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