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________________ ६७४ जीवाभिगमसूत्र गत्या मेरोराभाव्यमिति मेरुतया परिकल्प्य गणितज्ञाः सर्वत्रैकादश परिभागहानि वर्णयन्ति एवमिहापि धनपरिमाणम् । 'जइ णं भंते ! लवणसमुद्दे दो जोयणसहस्साई चक्कचालविक्खंभेणं पन्नरसजोयणसयसहस्साई एगासीइ च सहस्साई सयं इगुयालं किंचि विसेरणा परिक्खेवेणं-एगं जोयणसहस्स मुव्वेहेणं-सोलसजोयण सहस्साई उस्सेहेणंसत्तरसजोयणसहस्साई सव्वग्गेणं पन्नत्ते' यदि खलु भदन्त ! प्रतिपादितो लवणः समुद्रो वे योजनसहले चक्रवालविष्कम्भेण पञ्चदशयोजनशतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि शतमेकोनचत्वारिंशं किंचिद्विशेपोनं परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, एकं योजनसहस्रमुद्वेवेन पोडशयोजनसहस्राणि उत्सेधेन सप्तदशयोजनसहस्राणि सर्वाग्रेण कल्पना से नहीं कहते हैं। किन्तु जिन भद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषणवृत्ती में इस विचार के सिलसिले में ऐसा कहा है-'एवं उभयवेइयंताओ सोलस सहस्सुस्सेहस्स कन्नईए जं लवणसमुद्दा भव्वं जलसुन्नपि खेत्तं तस्स गणियं-जहा मंदरपब्वयस्स एकारसभागपरिहाणी कन्नगइए आगासस्स वि तदा भवंति काउं भणिया तहा लवणसमु. इस्स वि' इस प्रकार से विचार करने पर पूर्वोक्त घनगणित रूप प्रमाण सध जाता है। ___ अब गौतम स्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'जईणं भंते ! लवणसमुद्दे दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पन्नरस जोयणसतसहस्साई एगालीति सहस्साई सतं इगुथालं किंचि विसेसूणा परिक्खेवेणं इत्यादि' हे भदन्त ! जैसा कि आपने कहा है लवणसमुद्र चक्रवाल विष्कम्भ की अपेक्षा दो लाख योजन का है परिधि की अपेक्षा वह कुछ कम पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एकसौ उनतालीस योजन का है गहराई की अपेक्षा वह एक हजार योजन का है ऊंचाई જનભદ્ર ગણક્ષમા શમણે વિશેષણવૃત્તીમાં આ વિચારના સંબંધમાં આ પ્રમાણે કહ્યું छ.-'एवं उभयवेइयंताओ सोलससहस्सुस्सेहस्स कन्नगईए ज लवणसमुदा भव्वं जलसुन्नपि खेत्तं तस्स गणियं-जहा मंदरपव्ययास एकारसभागपरिहाणी कण्णगईए आगा. सस्स तदा भवंति काउं भणिया तहा लवणसमुदस्स वि' मा प्रमाणे ४२पाथी પૂર્વોક્ત ઘનગણિત રૂપ પ્રમાણ બની જાય છે. वे गौतभस्वामी प्रसुने ये पूछे छे 3-'जइणं भंते ! लवणसमुद्दे दो जोयणसहस्साई गासीति सहस्साई सतं इगुयालं किंचि विसेसूर्ण परिक्खेवेणं ઈત્યાદિ હે ભગવન્ આપે કહેલ છે કે-લવણું સમુદ્ર ચક્રવાલ વિકંભની અપેથા ખ એજનન - નિી અપેક્ષાથી તે કંઈક ઓછો પંદર લાખ એક સે - "જનને છે. ઉંચાઈની અપેક્ષાથી તે
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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