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________________ ४३. प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सू. ५४ जंबूद्वीपद्वारसंख्यादि निरूपणम् किन्नररुरुशरभचमरकुञ्जरवनलता पद्मलताभक्तिचित्रम्, ईहामृगादिचित्रविच्छिरया चिचरचनया चित्रितम्, 'खंभुग्गयवइरवेइया परिगयाभिरामे' स्तम्भोगतवज्रवेदिका परिगताभिरामम्, विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्ते इव' विद्याधरयमलयुगलयंन्त्र युक्तमिव 'अच्चिसहस्समालिणीए' अर्चिः सहस्रमालिनीकम् 'रूवगसहस्सक लिए' रूपकसहस्रकलितम् 'भिसमाणे भिब्भिसमाणे' दीप्यमानं देदीप्यमानम्, 'चक्खु - लोयणले से' चक्षुर्लोकनलेसम् 'सुहफा से' सुखस्पर्शम् 'सस्सिरीयरूवे' सश्रीकरूपम् - मकर के - पक्षी के, व्याल - स ल - सर्पराज के किन्नर के, रुरु - मृग के, सरभ - अष्टापद के, चमरी गाय के, कुंजर - हाथी के, वनलताओं के, और पद्मलताओं के चित्र बने हुए हैं 'खंभुग्गयवहरवेइया परिगयाभिरामे' यह द्वार वज्रवेदिकाओं से जो कि इसके खंभो पर बनी हुई है बहुत ही अधिक आकर्षक है । 'विज्जाहर जमलजुयलजंतजुत्ते इव अच्चिसहस्स मालिणी' विद्याधरों के समश्रेणिकयुगल - जोडे यंत्र मे लगे हुए प्रतीत. होते हैं अर्थात् वे ऐसे प्रतीत होते हैं कि ये स्वाभाविक नहीं है किन्तु विशिष्ट विद्याशक्तिवाले किसी पुरुषने अपनी दिव्य शक्ति के पुरुष के प्रपञ्च से बनाए है और प्रभासमुदाय से युक्त है । 'स्वगसहस्सकलिए' यह हजारों रूपों से युक्त है 'भिसमाणे' अपनी प्रभा से चमकता रहता है और 'भिभिसमाणे' बहुत ही अधिक रूप में तेजस्वी प्रतीत होता है, 'चक्लोयणलेसे' देखने पर यह ऐसा प्रतीत होता है कि मानो आंखों में ही समाया जा रहा है । 'सुहफासे' इसका स्पर्श अधिक सुखजनक है 'सस्सिरोयरूवे' इसकारूप अधिक सुहावना और लुभा તુરંગ—ઘેાડાના નર–મનુષ્યના મઘરના પક્ષીના સ`ના કિન્નરના રૂરૂ નામના મૃગના સરલ અષ્ટાપદના, ચમરી ગાયના કુંજર હાથીના. વનલતાઓના અને પદ્મसताओना यित्री मनेला छे. 'खंभुम्गयवइरवेड्या परिगयाभिरामे' मा द्वार - વૈશ્વિકાઓથી કે જે તેના થાંભલાઓ પર અનેલ છે. અને ઘણાજ અધિક प्रभाणुथी आउर्षित लागे छे. 'विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्ते इव अच्चिसहस्स માળિી વિદ્યાધરોના સમ શ્રેણિવાળા યુગલા જોડલા યંત્રમાં લગાડેલા જેવા જણાય છે. અર્થાત્ એવા જણાય છે કે તે સ્વાભાવિક નથી. પર ંતુ વિશેષ પ્રકારની વિદ્યાશક્તિવાળા કાઈ પુરૂષે પેાતાની વિદ્યાના પ્રભાવથી બનાવેલા છે. मने ते प्रलासभुद्दायर्थी युक्त छे. 'रूवगसहस्सकलिए' ते इन्नरो ३पोथी युक्त छे. 'भिसमाणे' पोतानी अला अंतीथी शुभता रहे छे. 'भिव्भिसमाणे' धान पधारे प्रभाशुभां तेनस्वी नशाय छे. 'चक्खुलोयणलेसे' लेवाथी मेवा भगाय छे है लो यांचेोभान सभा भय छे. 'सुहफासे' तेना स्पर्श वधारे सुभ
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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