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________________ ४६४ जीवामिगमसूत्रे मुद्वेधेन - 'दो जोयणाई खंधे' द्वे योजने स्कन्धः 'अह जोयगाई विवखंभेणं' अष्टौ योजनानि विष्कम्भेण 'छ जोयणाई विडिमा' पड़योजनानि विडिमाः भूमेर्वहिताः प्रदेशाः 'वहुमप्रदेसभाए अट्टजोयणाड़ विक्खभेणं' बहुमध्यदेश भागे अष्टौ योजनानि विष्कम्भेण 'साइरेगा' अहजोयणाई सन्चग्गेण पश्नत्ता' सातिरेकाणि अष्टौ योजनानि सर्वाग्रेण उद्वेधोच्चैस्त्व परिमाणमीलनेन 'वइरामयमूला' वज्रमयमूला, 'रजय सुपरिट्टियविडिना' रजतसुप्रतिष्ठितविडिमा - ऊर्ध्व विनिर्गत देशा यस्याः सा, 'एवं चेइयरुक्खवण्णओ जाव सव्त्रो' एवं चैत्यवृक्षवर्णको यावत्सर्वः 'रिहामयविउलकंदा' रिष्टमयविपुलकन्दाः, 'वेरुलियार संत्रा - योजन का ऊंचा है | आधे योजन की गहराई है अर्थात् जमीन के भीतर यह आधे योजन की गहराई में है 'दो जोयणाई खंधे' दो योजन का इसका स्कन्ध भाग है । 'अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं छ जोयणाई विडिमा' चौडाई इसकी आठ योजन की है शाखाएं इसकी ६ योजन की हैं 'बहुमज्झदेसभाए अहजोयणाई विक्खंभेणं' मध्य भाग में यह आठ योजन का चौडा है 'साइरेगाइ अट्ठ जोयणा सव्वग्गेणं पण्णत्ता' इसकी ऊंचाई और उद्वेध परिमाण मिलाकर सब विस्तार साधक आय योजन का है 'वहरामयमूला, इसका मूल वरत्न का बना हुआ है 'रयतसुपतिडि विडिमा' चांदी की इसकी सुप्रतिष्ठित बिडिया - ऊंचे की ओर निकली हुई शाखाएं हैं ' एवं चेतियरुक्खचण्गओ जावसच्चो' इसका वर्णन चैत्यवृक्ष के वर्णन जैसा है यावत् उत्तम चांदी की बनी हुई इसकी शाखाएं हैं विविध मणियों और रत्नों की बनी हुई इसकी प्रशाखाएं हैं वैडूर्यरत्नमय इनके पत्र योन्नती छे, अर्थात् भीननी अंडर ते अर्धा योजन सुधी 63 छे. 'दो जोयणाई खंधे' में नतु तेनु' सुध छे. 'अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं छ जोयणाई विडिमा' तेनी पहजार आठ योजननी छे, तेनी शाखाओ ६ छयो ननी छे, 'बहुमज्झदेसभाए अट्ठ जोयणाई बिक्खंभेणं मध्यभागमां थे आहे योभननी थडोजी छे. 'साइरेगाईं अट्ठ जोयणाई सव्त्रणं पण्णत्ता' तेनी ઉંચાઇ અને દ્વેષ પરિમાણુ ષધુ મળીને ખધેા વિસ્તાર કંઈક વધારે या योजननो छे. 'वंइरामया मूला' तेना भूजलाग व रत्ननों मनेा छे. 'रयत सुपइट्ठियविडिमा' तेनी सुप्रतिष्ठित विडिभा अर्थात् थी 'जालु नोउजेस शामाओ यांहीनी छे. 'एवं चेतिय रुraaण्णओ जाव सव्यो' तेनुं वर्शन येत्य વૃક્ષના વન જેવુ છે. યાવત્ ઉત્તમ ચાંદીની તેની શાખાએ મનેલી છે. અનેક પ્રકારના મણિયા અને રત્નાની તેની પ્રશાખાએ બનેલી છે. તેના પાડાએ
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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