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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.६७ विजयदेवस्य कामदेवप्रतिमापूजनम् ३५३ अपरिमुक्तै वरैर्गन्धैर्माल्यैश्चीचयति, अच्चत्ता' पुप्फारुहणं गंधारुहणे मल्लारुहणं वणाहणे चुण्णाहणं आभरणारुणं करेति' अचित्वा पुप्पारोपणं-पुष्पैः पूजाम्, गन्धारोपण-माल्यारोपणं-वर्णारोपणे-चूारोपणम् आभरणारोपण गन्धाधैः पूजां च करोति, 'करेत्ता' कृत्वा पुष्पाधारीपणम्, 'आसत्तोसत्त विपुलवटेवग्धारित मल्लदमिकलावं करेंति आसक्तीत्सक्त विपुलवृत्तव्याधारित माल्य दामकलापं करोति, 'करत्तो प्रशस्त माल्यंदामकलापं कृत्वा, 'अच्छेहि सण्हेहिं रययामएहि अच्छरसा तंडुलेहि अच्छैः इलक्ष्णै रजतमयैरच्छरसर्तण्डुलैः-तत्राऽच्छ आकांशस्फटिकवदतिनिर्मला श्लक्ष्णो-मसंणः, अच्छो रसो येषां तें-अच्छरसाः, प्रत्यासन्नवस्तु प्रतिबिहिय अञ्चेति पहिरा कर फिर उसने श्रेष्ठ सुगंधित ऐसी अपरिभुक्त मालाओं से उनकी अर्चना की ''अच्चत्ता पुकारहणं गंधारुहणं, मल्लारुहणं, वण्णाहणं चुग्णाहणं, आभरणारुहण, करेति. अर्चना करके फिर उसने उनपर पुष्पं चढाये, पुष्पों से उनकी अर्चना की गंध से धूप से "उनकी अर्चना की माल्य-मालाओं सें-उनकी अर्चना की, वर्णक से उनकी अर्चना की चूर्ण' से उनकी अर्चना की और आभरणों से उनकी अर्चना की 'करेत्ता' पुष्पादिकों से अर्चना करके, आसत्तोसत्तविपुलववंग्धोरिय मल्लदामकलावं' करेंति फिर उसने वहीं पर पृथिवी तेल तक लम्बी होती हुई ऐसी पुष मालाओं का समूह वहीं रक्खा "करेत्ता' इस प्रकार से पुष्पमालाओं का समूह वहां करके 'अच्छेहि सण्हेंहिं रययांमएंहिं अच्छरसातंडुलेहि फिर उसने स्वच्छ-आकाश और ' स्फटिक जैसे निर्मल चिकने, अच्छे रस वॉले-प्रत्यासन्न वस्तुका जिनमें प्रतिविम्ब पडं जावे ऐसे रजतमय "परिभित भुताभापामाथी तेनु भयन यु 'अच्चत्ता पुष्फारुहणं गंधारुहणं मल्लारुहणं वण्णारुहर्ण चुण्णांरुहणं आभरणारुहणं करेति' अर्थ ना ४ा पछी तणे તે કામદેવ પ્રતિમાની ઉપર પુષ્પ ચડાવ્યા. અર્થાત્ પુથી તેનું અર્ચન કર્યું તથા ગઈ અને ધૂપ દ્રવ્યથી તેની અર્ચના કરી, પુષ્પમાળાએથી તેની અર્ચ ભાકરી-વર્ણકથી તેની અર્ચના કરી, ચૂર્ણ દ્રવ્યથી તેની અચનાકરી તેમજ मासूपणाथी तनी मन। ४. 'करेत्ता'' भाणे पुण्य विशेरंथी अर्थना शन 'आसत्तोसत्तविपुलवट वग्वारियमलदामकलावं करें ति" ते ५छी तेथे त्यां આગળ જમીનસુધી પહોંચે એવી લાંબી પુપોની માળાઓને સમૂહ ત્યાં राध्या 'करेत्ता' 'भाशत '५' भीजामाना संभूडया भयं न शन 'अच्छेहि सण्हेहिं रययामएहिं अच्छरसातंडुलेहि ते पछी" तेथे 'स्व- मन સ્ફટિક જેવા નિર્મલ ચિકણ અચ્છરસવાળા અર્થાત્ સમીપમાં રહેલ વસ્તુનું मी०४५
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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