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________________ प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.६५ विजयदेवाभिषेकवर्णनम् आभियोगिका देवा आदेश श्रवणानन्तरमेव 'सामाणिय परिसोववण्णेहिं एवं वुत्ता समाणा' सामानिक पर्षदुपपन्नकैराज्ञप्ताः सन्तः 'हट्टतुट्ठ जाय हियया' हृष्टतुष्टमानन्दिताः प्रतिमनसो हर्षविसर्पद्धृदयाः, 'करयलपरिग्गहिग्रं' करतलपरिगृहीतम् 'सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु' शिरसावर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा 'एवं देवा तहेति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणति, एवम्, यथैव युष्माभिरादिष्टः तथैव कुर्मः इत्थं विनयेन सामानिकानामाज्ञावचनं प्रतिशृण्वन्ति, 'पडिमुणिचा उत्सरपुरत्थिमं दिसीभागं अवकमंति' प्रतिश्रुत्य सामानिकानां मनोभिप्रायसूचक बचनमुत्तरपूर्वयोरन्तराले दिक्शूलादि दोषवर्जितत्वात् आदेयवस्त्वाधारत्वाच प्रथम महरिहं विपुलं इंदाभिसेयं उवढेह' विजयदेव को इन्द्रासन पर अभिषेक करने के लिये महान् अर्थवाली वेश कीमती विस्तृत ऐसी अभिषेक की सामग्री उपस्थित करो 'तएणं ते आभियोगिया देवा' तव उन अभियोगिक देवों ने 'सामाणियपरिसोववन्नेहिं एवं वुत्ता स माणा' जो कि सामानिकदेवों द्वारा इस प्रकार से आदेशित कियेगये थे 'हहतुट्ट जाव हियया' और उपदेश सुनकर-जो हृष्ट एवं तुष्ट हुए थे। और जिनका हृद्य आनन्द के वशवर्ती होकर विशेषरूप से उछल रहा था-'करयरलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु' दोनों हाथ जोडकर अंजलिके रूप में उन्हें माथे पर घुमाया और धुमा कर 'एवं देवा तहत्ति' हे देवों जैसा आप कहते हैं-हमें आपकी आज्ञा प्रमाण हैं। इस प्रकार 'आणाए' उनकी आज्ञा के 'विणएणं वयणं पडिसुणेति' वचनों को बडी ही विनय के साथ स्वीकार करलिया 'पडि। दुवेह वियपना दासन ५२ मलिषे ४२१॥ भाटे महान मथुरात यश - કીમતી અને વિસ્તાર વાળી અભિષેક માટેની સામગ્રી લાવીને અહીં હાજર ४३. 'तएणं ते आभियोगिया देवा' ते पछी से मालियो हेवाय 'सामाणिय परिसोववन्नेहि' एवं वुत्ता समाणारेमा सामानि: । दा॥ ५२ अभाये माहेश ४२रायेदा तमा 'हट्टतुटु जाव हियया' मने पहेश साबणानन्। હૃષ્ટ અને તુષ્ટ થયા હતા અને જેઓનું હૃદય આનંદ વશવતી બનીને विशेष प्राथी 8जी २घु उतु 'करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि 'कटु' भन्ने डाया लेडीन. मी परीने तेणे से मशीन पोताना मस्त ५२ ३२वी मन मे प्रमाणे माथा ५२ ३२वीन ‘एवं देवा तहत्ति' हेरेम तमी ४ छ। अर्थात् ममाने मापनी माझा मान्य छे. या प्रमाणे 'आणाए' मेमनी माज्ञान'विणएणं वयगं सुगति' पयनाने घg विनय पूर्व सीरी सीधा 'पडिसुणित्ता' २वी४२ ४शन ते पछी तेसो उत्तरपुरस्थिमं दिसीमागं'
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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