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________________ २०८ जोवाभिगमसूत्रे भेणं'-अर्धक्रोशं धनुःसहस्रप्रमाणं विष्कम्भेण, 'वइरामय वट्ठलट्ठसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्टमहसुपइट्ठिया' वज्रमय वृत्तलष्ट संस्थित सुश्लिष्ट परिघृष्ट मृष्ट सुप्रतिष्ठिताः ॥ अत्र वज्रमयाः-वज्ररत्नमयाः तथा-वृत्तं वर्तुलम्, लप्टं-मनोज्ञम्, संस्थितं संस्थानं येषां ते वृत्तलष्टसंस्थिताः तथा-श्लिष्टाः यथा भवन्ति परिघृष्टाः द्रवघृष्टाः श्लिष्टपरिष्टाः मृष्टाः सुप्रतिष्ठिताः मनागप्यचलनात् । 'अणेगवरपंचवण्णकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा-' अनेकैवरैः प्रधानैः पञ्चवर्णैः कृष्णादिभिः कुडभीसहस्रैः लघुपताकासहस्रैः परिमण्डिता सन्तोऽभिरामा:मनोज्ञाः, 'वाउङ्ख्या विजय वेजयंती पडागा'-वातोद्धृत विजय वैजयन्तीपताकाः तत्र-बातोद्धृताः वायुनाऽनवरतं प्रकम्पिताः, विजयोऽभ्युदयः तत् संसूचिका वैजयन्ती नाम्न्यो याः पताका, अथवा-विजया इति वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिकाः उच्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्त्यो विजयवैजयन्त्यः पताका है । 'अद्धकोसं उब्वेहेणं' आधेकोश का इन का उद्वेध गहराई है और 'अद्धकोसं विश्वंभेणं' आधे ही कोश की इनकी चौडाई है । 'वइरामय वट्ठल? संठियसुसिलिट्ठ परिघट्टमट्ठसंपइष्टिया' ये माहेन्द्रध्वजाएं वज्ररत्न की है और इनका संस्थान गोल है । मनोज्ञ है, ये सब ऐसी प्रतीत होती है कि मानों अच्छी तरह से घिसी गई है तथा प्रमार्जित की गई है । और अपने स्थान से थोडी सी भी नहीं चलने के कारण ये सुप्रतिष्ठित हैं। 'अणेगवरपंचवण्णकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा' तथा ये सव माहेन्द्रध्वजाएं अन्य अनेक श्रेष्ठ पांचवर्णों वाली छोटी छोटी हजारों लघुपताकाओं से परिमंडित हैं। अतः देखने में बडी सुन्दर जचती हैं। 'वाउद्धृया विजयवेजयंतीपडागा' विजय वैजयन्ती नामकी और भी ध्वजाएं हैं। जो निरन्तर वायु से उडती रहती है । वैजयन्ती नामकी ध्वजाएं-पताकाएं विजय की अर्थात् अभ्युदय की सूचिका है। इसलिये इन्हें विजय वैजयन्ती सनी तनी पडा छे. 'वइरामय वट्टलढसंठिय सुसिलिट्ठ परिघट्टमट्ठ संपइક્રિયા એ મહેન્દ્ર ધજાઓ વજરત્નની છે. અને તેનું સંસ્થાન ગોળ છે. મને જ્ઞા છે. એ બધી એવી જણાય છે કે જાણે સારી રીતે ઘસવામાં આવેલ છે. તથા પ્રમાજીત કરવામાં આવેલ છે. અને પિતાના સ્થાનથી ડીપણ ન ચાલવાથી त सुप्रतिष्ठित छे. 'अणेगवरपंचवण्ण कुडभी सहस्स परिमंडियाभिरामा' तथा 2 બધી મહેન્દ્ર ધજાઓ બીજી અનેક શ્રેષ્ઠ પાંચ વાળી નાની નાની હજારે લઘુપતાકાઓથી પરિમંડિત છે. તેથી જોવામાં ઘણુજ સુંદર જણાય છે. 'वाउधूया विजय वेजयंती पडागा' विन्य वैश्यन्ती नभनी मी पण पन्न। છે, જે હંમેશાં વાયુથી ઉડતી રહે છે, જયન્તી નામની ધજાઓ, પતાકાઓ
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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