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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.१० सू.१५० जीवानां सप्तविधत्वनिरूपणम् १४८१ तम तस्याऽसंख्यात भेदात्मकत्वात् तत् उपपद्यन्ते कृष्णलेश्याकस्याऽन्तर्मुहर्ताऽभ्यधिकानि प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि इति । 'नीलछेस्से णं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दससागरोक्माई पलिओवमस्स असंखेजइ भागमभहियाई' नीललेश्यो-जघन्यतोऽन्तर्मुहत यावस्थितिमान् तिर्यङ्मनुष्यालेश्यावन्तः। उत्कर्पण दशसागरोपमाणि पल्योपमाऽसंख्येयभागाऽभ्यधिकानि, नीललेश्ययतामेतावस्थितिकत्वात्, पाश्चात्याग्रेतन भवगते च प्रथमचरमान्तर्मुहूर्त पल्योपमाऽसंख्येयभागान्तः प्रविष्टेन पृथग् विवक्षते इति । 'काउलेस्से णं भंते !०' कापोतलेग्यः हैं वे पीछे के भव के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त तक और आगे के भय के प्रथम अन्तमुहूर्त तक कृष्णलेश्या वाले होते हैं ये दोनों अन्तर्मुहूर्त एक ही अन्तर्मुहूर्त से परिगणित किये गये हैं क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के असंख्यात भेद होते हैं इस तरह से कृष्णलेश्या वाले की कायरिथति उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहर्त अधिक ३३ सागरोपम तक की सध जाती है 'नीललेस्लेणं भंते !' हे भदन्त ! नील लेश्या वाले जीव की कायस्थिति कितने काल की है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! नीललेश्या वाले की कायस्थिति 'जह० अंतोमु० उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेजइभागमभहियाई' जघन्य से तो एक अन्तर्मुहूर्त की होती है और उत्कृष्ट से पल्योपम के असंख्यातवें भाग से अधिक दश सागरोपम की होती है नीललेश्या वाले जीव की जो उत्कृष्ट रूप से इतनी कायस्थिति कही गई है वह धूमप्रभा के प्रथम प्रस्तर के नारक जीवों की इतनी स्थिति होने के कारण कही गई है पाश्चात्य भव का अन्तिम अन्तर्मुहर्त और अग्रेतन भव એકજ અંતમુહૂર્તથી ગણવામાં આવેલ છે. કેમ કે અંતર્મુહૂર્તના અસં. ખ્યાતભેદે હોય છે. આ રીતે કુષ્ણુલેશ્યા વાળાઓની કાયસ્થિતિ ઉત્કૃષ્ટથી એક અંતર્મુહૂર્તા અધિક ૩૩ તેત્રીસ સાગરેપમ સુધીની સિદ્ધ થઈ જાય છે. ___ 'नीललेस्सेणं भंते ! भगवन् ! नीसवेश्या वाणा पनी स्थिति કેટલા કાળની છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ ! नासोश्या पनी यस्थिति 'जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दस सागरोवमाई पलिओवमस्स असं खेज्जइभागमभडियाई' धन्यथी तो मे मतभुહૂના હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી પાપમના અસંખ્યાત ભાગથી અધિક દસ સાપરોપમની હોય છે. નીલલેશ્યા વાળા જીવની ઉત્કૃષ્ટ પણાથી જે આટલી કાયસ્થિતિ કહી છે. તે ધૂમપ્રભાના પહેલા પ્રસ્તરના નારક જીવની એટલી સ્થિતિ હેવાના કારણે કહેવામાં આવેલ છે. પાછલના ભવનું છેલ્લું અંતર્મુછું અને આગળના ભવનું પહેલું અંતમુહૂર્ત પલ્યોપમના અસંખ્યાતમાં ली० १८६
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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