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________________ प्रद्योतिका टीका प्र. १० सू. १४९ जीवानां षड् विधत्वनिरूपणम् १४७३ पोग्गल परियहं देखणं' आहारकशरीरणोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुहुर्तम् उत्कर्षेणानन्तं कालं यावदपार्थं पुद्गलपरावर्ती देशोनम् । 'तेयगसरीरस्स कम्मगसरीरस्स य दुण्ड वि नत्थि अंतरं' तैजस कार्मणशरीरिणोर्द्वयोरपि नास्त्यन्तरम् आसंसारं तयोरवस्थानात् । 'अप्पाबहु०' अल्पबहुत्वे एतेषां गौतम ! 'सव्वत्थोवा आहारगलरीरी' सर्वस्तोका आहारकशरीरिण: उत्कर्षतोऽपि सहस्र पृथक्त्वेन प्राप्यमाणतात् । काळाऽपेक्षयैतद्द्भवति । 'वेउव्वियसरीरी असं खेज्जगुणा' एभ्यो वैक्रियशरीरिणोऽ उक्को सेणं अणतं कालं जाव अब पोग्गल परियह देखणं' आहारक शरीर का अन्तर जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट से अन्तर कुछ कम अनन्तकाल से अपार्धपुद्गल परावर्त काल का है 'लेयग. कम्मगसरीरस्स य दुव्ह वि णत्थि अंतरं' तैजस और कार्यण इन दोनों का अन्तर नहीं होता है क्योंकि जीव जब तक मोक्ष नहीं जाता है तब तक इन दोनों का अभाव उस जीव से नहीं होता है इनके अभाव होते ही जीव को मुक्ति प्राप्त हो जाती है अतः मुक्त जीव का संसार में आगमन नहीं होने से पुनः इनकी प्राप्ति जीव को नहीं हो सकती है इसलिये इन दोनों का अन्तर कथित नहीं हुआ है । 'अप्पा बहु० ' इनके अल्पवद्दुत्व का विचार - इस प्रकार से है'सव्वत्थोवा आहारगसरीरी, वेडव्विय सरीरी असंखेजगुणा' सब से कम आहारक शरीर वाले जीव हैं इनकी अपेक्षा वैक्रियशरीर वाले जीव असंख्यातगुणें अधिक हैं अर्थात् आहारक शरीर वालों का प्रमाण अड्ढं पोग्गलपरियहं देणं' भाडा२४ शरीरनु तर धन्यथी मे अंतर्भु''નું છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી અનતકાળથી કઇક એછુ. અપા યુદ્ગુગલ પરાવ आज छे. 'तेया कम्मगसरीरस्स य दुण्ह वि णत्थि अंतरं' तैनस भने प्रभ એ બેઉનુ અંતર હાતું નથી, કેમકે જયાં સુધી જીવ મેક્ષ પ્રાપ્તિ કરતા નથી ત્યાં સુધી એ બન્નેના અભાવ એ જીવને થતા નથી. તેના અભાવ થતાંજ જીવને મુક્તિ પ્રાપ્ત થઇ જાય છે. તેથી મુક્ત જીવ સૌંસારમાં આગમન ન થવાથી ફરીથી જીવને તેની પ્રાપ્તિ થતી નથી. તેથી આ ખન્નેનુ અંતર કહેવામાં આવેલ નથી, 'अप्पा बहु०' खेभना अयमहुत्वनो विचार मा प्रभाणे छे. 'सन्वत्थोवा आहारगसरीरी, वेडव्विसरीरी अस खेज्जगुणा' सोथी माछा माहा२४ शरीर વાળા જીવ છે. તેના કરતાં વેંક્રિય શરીરવાળા જીવા અસંખ્યાતગણા વધારે છે. અર્થાત્ આહારક શરીર વાળાઓનું પ્રમાણ વધારેમાં વધારે સહસ્રપૃથત્વ ला० १८५
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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