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________________ जीवाभिगमसूत्र न्तर्मुहूर्तस् उपशान्तमोहगुणस्थानककालस्यैतावत्कालप्रमाणत्वात् इत्येके, अन्ये तु-जघन्यतोऽपि अन्तर्मुहूर्तम्, न लोभोपशमप्रवृत्तस्याऽन्तर्मुहर्तादयो मरणमिति घृद्धिवादात्। ___अथैपामन्तरम्-'कोहकसाई' इत्यादि क्रोधादि कपायिणो भदन्त ? कियचिरं कालतः ? गौतम ! 'कोहकसाई-माणकसाई मायाकसाई णं अंतरं जहन्नेणं एग समयं' क्रोधकपायि-मानकपायि मायाकपायिणामन्तरं जयन्यनकं समयतदुपशमसमयानन्तरं मरणे भूयः कस्यापि क्रोधाधुदयात् । 'उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं उत्कर्पतोऽन्तर्मुहूर्तम् । 'लोभकसाइस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं अंतोमुत्त जघन्योत्कर्षाभ्यामन्तर्मुहूर्त लोभकपायिणः, नवरं जघन्यत उत्कृष्टं वृहत्तरम् । । अकषायी रहता है क्योंकि उपशान्तमोह गुणस्थान का काल उत्कृष्ट से इतना ही कहा गया है। इनका अन्तर कथन-'कोहकसायी, माणकसाई, मायोकसाइर्ण अंतरं जह० एक्कं सययं उक्कोसेणं अंतोमु०' हे भदन्त ! क्रोधकषाय वाले का अन्तर कितना होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं हे गौतम ! क्रोधकषाय वाले का अन्तर जघन्य से तो एक समय का होता है और उत्कृष्ट से अन्तर एक अन्तर्मुहूर्त का होता है इसी तरह का अन्तर मान और मायाकषाय वालों का भी जघन्य और उत्कृष्ट से होता है ऐसा जानना चाहिये 'लोभकसाइस्स अंतरं जह अंतोसुकुत्तं उकोसेणं अंतोमु०' लोभकषाय वाले का अन्तर जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का होता है और उत्कृष्ट से भी वह एक अन्तर्मुहूर्त का होता है जघन्य के अन्तर्मुहूर्त से उत्कृष्ट का अन्तर्मुहूर्त बडा है જાય છે. તથા ઉત્કૃષટથી એક અંતર્ગત પર્યન્ત અકષાયી રહે છે. કેમકે ઉપશાંત ગુણસ્થાનનકાળ ઉત્કૃષ્ટથી એટલે જ કહેવામાં આવેલ છે. અંતર દ્વારનું કથન 'कोह कसाई माणकसाई, मायाकसाईण, अंतरं जहण्णेणं एक समय उक्कोसेणं अतोमुहुत्तं' ३ लावन् ! ओध पायवाणानुमत२ डाय छ ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ ક્રોધકષાયવાળાઓનું અંતર જઘન્યથી તે એક સમયનું હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અંતમુહૂર્તનું અંતર હોય છે, આજ પ્રમાણેનું અંતર માન, માયા વિગેરે કષાયો पाणामानु प धन्य भने उत्कृष्टथी थाय छे. तेभ समा. 'लोहकसाइस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उनकोसेणं अंतोमुहुत्त' सोल पायवाणा નું અંતર જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂર્તનું હોય છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ તે એકજ અંતમુહૂર્તનું હેય છે. જઘન્યના અંતર્મુહૂર્ત કરતાં ઉત્કૃષ્ટનું અંત
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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