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प्रनयोतिका टीका प्र.१० सू.१४१ प्रकारान्तरेण सर्वजीवानां द्वैविध्यम् १३४१ -आनन्त्यं दर्शयति-'जाव खेत्तो अवटुं पोग्गलपरियट्ट देसूर्ण' अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः एषा कालतो मार्गणा, क्षेत्रतोऽपार्धपुद्गलपरावर्तम् देशोनम् एतावकालावं पूर्वप्रतिपन्नोपशमश्रेणेरवश्यं मुक्त्यासन्नतया श्रेणि प्रतिपत्ताव वेदकल भावात् इति । 'अवेदएणं भंते ! अवेदएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ' अवेदकः खलु मदन्त ! अवेदक इति कालतः केवञ्चिरं भवति ? भगवानाह-गोयमा ! अवेदए हुविहे पन्नत्ते, तं जहा-सादीए वा अपज्जवसिए सादीए वा सपज्जवसिए' गौतम ! अवेदको द्विविधः-सादिकोवाऽपर्यवसितः (समयानन्तरं) क्षीणवेदः, अवेदकत्वं स्थिति का काल जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का कहा गया है और उत्कृष्ट से अनन्त काल का कहा गया है इस अनन्तकाल का काल
और क्षेत्र की अपेक्षा से निरूपण इस प्रकार से कहा गया है अनन्त उत्सर्पिणियां और अवसपिणियां काल की अपेक्षा से हो जाती है और 'जाव खेत्तओ अवडू पोग्गलपरियह देसूणं' यावत् क्षेत्र की अपेक्षा से कुछ कम अर्ध पुद्गल परावर्त रूप काल समाप्त हो जाता है। तात्पर्य इसका ऐसा है कि एक वार उपशमश्रेणि प्राप्त करके अवेदक बन कर पुनः श्रेणि से गिरा हुआ जीव सवेदक हो जाता है और उत्कृष्ट से इतने काल के बाद पुनः श्रेणि को प्राप्त कर वह अवेदक बन जाता है 'अवेदए णं भंते ! अवेयएत्ति कालओ केवचिरं होइ' हे भदन्त ! अवेदक जीव की कायस्थिति का काल कितना है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! अवेदए दुविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! अवेदक दो प्रकार के कहे गये हैं 'तं जहा' जैसे 'साईएवा અંતમુહૂર્તને કહેવામાં આવેલ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી અનંતકાળને કહેવામાં આવેલ છે. આ અનંત કાળનું કાળ અને ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી આ પ્રમાણે નિરૂ પણ કરવામાં આવેલ છે. અનંત ઉત્સર્પિણી અને અનંત અવસર્પિણી
गनी अपेक्षाथी २७ तय छे. मने 'जाव खेत्तओ अवडूढं पोग्गलपरियटुं देसूर्ण' થાવત્ ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી કંઈક ઓછું અર્ધ પુદ્ગલ પરાવર્ત રૂપ કાળ સમાપ્ત થઈ જાય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે એક વાર ઉપશમ શ્રેણને પ્રાપ્ત કરીને અવેદક બનીને ફરીથી એ શ્રેણિથી પડે તે જીવ સદક થઈ જાય છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી એટલા કાળ પછી ફરીથી શ્રેણિને પ્રાપ્ત કરીને તે અવેદક मनी लय छ; 'अवेदए ण भंते ! अवेदएत्ति कालओ केवच्चिरं होई' 3 भगवन् અવેક જીવની કાયસ્થિતિને કાળ કેટલે કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री ५ छे है-'गोयमा ! अवेदए दुविहे पण्णत्ते गौतम ! म १