SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.७ सू.१३७ अष्टविध सं० स० जीवनिरूपणम् १२९९ · अथैषां प्रथमाऽप्रथमसमयगताऽल्पबहुत्वमाह - 'एएसि णं - पढमसमयनेर - अपढमसमयनेरइयाणं कयरे कयरेहिंतो ० ' एतेषां खलु भदन्त ! प्रथमसमयनैरविकाणामप्रथमसमयनैरयिकाणां कतरे कतरेभ्योऽल्पा बहुका स्तुल्याविशेषाधिकावेति प्रश्ने भगवानाह - गौतम ! 'सव्वोत्थोवा पढमसमयनेरइया' प्रथमसमयनैरयिकाः सर्वस्तोकाः एकसमये संख्यातीतानामपि स्तोकानामेवोत्पादात् । 'अपढमसमय नेरइया असंखेज्जगुणा' एभ्योऽप्रथमसमयनैरयिका असंख्ये 1 प्रदेशराशि प्रमाण श्रेणियों में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उनके बराबर है । इनकी अपेक्षा अप्रथम सप्रयवतीं देव असंख्यातगुणें अधिक हैं। क्योंकि व्यन्तर और ज्योतिष्क देव अधिक हैं । इनकी अपेक्षा अप्रथम समयवता तिर्यग्योनिक अनन्तगुणे अधिक है क्योंकि वनस्पतियों का प्रमाण अनन्त कहा गया है । अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं - 'एएसि णं भंते ! पढमसमंथ रइयाणं अपढमसमय नेरइयाणं कयरे कयरेहिंतो' हे भदन्त । इन प्रथम समयवर्ती और अप्रथम समयवर्ती नैरयिकों के बीच में htra fort अपेक्षा अल्प है ? कौन किनकी अपेक्षा बहुत हैं ? कौन किनके बराबर है ? और कौन किससे विशेषाधिक हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - गौतम ! 'सव्वत्थोवा पढमसमयनेरइया' हे गौतम ! सबसे कम प्रथम समय के नैरयिक हैं ? क्योंकि एक समय में संख्यातीत ऐसे नारकी अल्प ही उत्पन्न होते हैं । इनकी अपेक्षा 'अपढमसमय नेरइया असंखेज्जगुणा' अप्रथम समयवर्ती जो नैरयिक તેના કરતાં અપ્રથમસમયવતી દેવ અસખ્યાતગણા વધારે છે. કેમકે વ્યન્તર અને જયાતિ દેવ વધારે છે તેના કરતાં અપ્રથમસમયવતી તિશ્યોનિક જીવ અનંતગણા વધારે છે. કેમકે વનસ્પતિયોનુ પ્રમાણુ અનંત કહેવામાં આવેલ છે. हवे गौतमस्वामी अनुश्रीने येवु छे छे 'एएसिणं भंते! पढमसमयणेरइयाणं अपढमसमयनेरइयाणं कयरे : कयरेहिंतो' डे लगवन् या प्रथम સમયવતી અને અપ્રથમસમયવતી નૈરયિકામાં કાણુકાના કરતાં અલ્પ છે? કાણુ કાના કરતાં વધારે છે? કાણુ કાની ખરાખર છે ? કાણુ કાના કરતાં विशेषाधि४ छे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री छेडे 'गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयनेरइया' हे गौतम! सौथी मोछा प्रथम सभयना नैरयि। छे, કેમકે એક સમયથી સખ્યાતીત એવા નારકીયો અલ્પ જ હાય છે. તેના ४२di 'अपढमसमयनेरइया अस खेज्जगुणा' अप्रथम सभयवर्ती ने नैरयिष्ठ
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy