SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११९४ जीवामिगमस्ये उत्कर्षण पृथिवीकालः सूक्ष्मनिगोदस्याऽपि । 'अपज्जत्तगाणं सव्वेसि जहन्नेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं' अपर्याप्तक सर्व पृथिव्यादिकायिकानां जघन्यो काभ्यामन्तर्मुहूर्त स्थितिः नवरं-जघन्यादुत्कृष्ट शब्दमर्यादया यत्किञ्चिद्विशेषाधिकम् । 'पज्जत्तगाण वि सव्वेसि जहन्नेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्त' एवं पर्याप्तका अपि जघन्योत्कर्पाभ्यामन्तर्मुहूर्तस्थितिमन्तः (वैशिष्टयश्चोत्कृष्टे)। अथाऽन्तर-निरूपणम्-सुहुमस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ' सूक्ष्मस्य सूक्ष्म पृथिवी आदि जीवों की कायस्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहर्स की है और उत्कृष्ट से असंख्यात काल प्रमाण यावत् असंख्यातलोक प्रमाण है इसी तरह की कायस्थिति का काल निगोद का भी है पृथिवीकायिक की कायस्थिति का काल उत्कृष्ट से इतना ही बतलाया गया है अतः सूत्रकार ने यहाँ 'सन्वेसिं पुढवीकालो' ऐसा कहा है 'अंपज्जत्तगाणं सव्वेसिं जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुर्त, एवं पज्जत्तगाण वि सव्वेसि जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्त' हे गौतम ! जितने भी अपर्याप्त अवस्था वाले सूक्ष्म पृथिवीकायादिक जीव हैं उनकी कायस्थिति का काल जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहर्त का है इसी प्रकार से जितने भी पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव हैं उनकी कायस्थिति का काल जघन्य में एक अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट से भी एक अन्त मुंहत का है। अन्तर कथन-'सुहुर्मस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होई' हे વિગેરે ની કાયસ્થિતિ જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂતની છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી અસંખ્યાતકાળ પ્રમાણુની ચાવત અસંvયાત લેક પ્રમાણુની છે. આ જ પ્રમા છે ની કાર્યસ્થિતિને કાળ નિગોદને પણ છે. પૃથ્વીકાયિકની કાયસ્થિતિને કાળ મિશેદન પણ છે. પૃથ્વીકાચિકની કાર્ય સ્થિતિને કાળ ઉત્કૃષ્ટથી એટલેજ કહેવામાં भारत छ. तेथी सूत्रधारे महायां 'सव्वेसि पुटवीकालो' में प्रभारी ४८ छ. 'अपज्जतागाणं सव्वेसिं जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अत्तेमुहुत्तं, एवं पज्जगाण वि सब्वेसिं जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतो मुंहत्त' गौतम ! अपर्याસક અવસ્થાવાળા જેટલા સૂક્ષમ પૃથ્વીકાયિક જીવે છે. તેમની કાયસ્થિતિને કાળ જઘન્યથી પણ અંતમુહૂતને છે અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ અંતર્મુહૂર્તને છે. એજ પ્રમાણે જેટલા પર્યાપ્ત સૂકમ પૃથ્વીકાયિક જીવે છે. તેમની કાયસ્થિતિને કાળ જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂર્તને છે અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ એક અંતર્મુહૂતને છે,
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy