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________________ ११८६ aterभिगम अथ समुदितानामल्पत्वादि- 'एएसि णं भंते! पुढविकाइयाणं जाव तसकाइयाणं - पज्जत्तग अपज्जतगाण य कयरे कयरेर्हितो अप्पा वा ४१' एतेषां पृथिवीकायिकानां यावत् त्रसकायिकानां पर्याप्तकापर्याप्तकानां च खलु भदन्त ! कतरेभ्यः कतरेऽल्पाः ४ ? वेति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा ! सव्वत्थोवा तसकाइया पज्जतगा तसकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा' गौतम ! सर्वस्तोकाः पर्याप्तका खसकायिकाः, अपर्याप्तकास्त्रसकायिका असंख्येयगुणाः । ' तेडक्काया अपज्ज तसकाइया पज्जन्तगा तसकाइया अपज्जत्तगा संखेज्जगुणा' इस सूत्र के अनुसार पर्याप्तक जो त्रसकायिक जीव हैं वे सब से कम हैं और अपर्याप्त जो सकायिक हैं वे असंख्यातगुणें अधिक हैं। पर्याप्तक सों का प्रमाण प्रतर में गत जितने अङ्गुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण खण्ड हैं उतना बताया गया है 'एसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं जाव तसकाइयाणं पज्जराग अपज्जत्तगाण य कयरे कयरे हिंतो अप्पा वा ४, हे भदन्त ! इन पर्याप्तापर्याप्तक पृथिवीकायिकों अष्कायिकों, तेजस्कायिकों, वायुकायिकों, वनस्पतिकायिकों और कायिकों में कौन किनकी अपेक्षा अल्प हैं ? कौन किनकी अपेक्षा बहुत हैं कौन किनके बराबर हैं ? और कौन किनसे विशेषाधिक हैं इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - हे गौतम ! 'सम्वत्थोवा तसकाइया पज्जतगा तसकाइया अपजत्तगा असंखेज्जगुणा' पर्याप्त त्रसकायिक जीव सबसे कम हैं और अपर्याप्त वसायिक जीव इनकी अपेक्षा असंख्यातगुणें अधिक हैं । 'तेडक्काइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा' काइया पज्जत्तगा तसकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा' मा सूत्रपाहना उथन પ્રમાણે પર્યાપ્તક જે ત્રસકાયિક જીવો છે તેએ સૌથી એછા છે. અને અપર્યાપ્તક જે ત્રસાયિક જીવ છે તેઓ અસંખ્યાતગણા વધારે છે. પર્યાપ્ત ત્રસેનું પ્રમાણુ પ્રતરમાં રહેલ જેટલા આંગળના અસખ્યાત ભાગ પ્રમાણ ખંડ છે भेटला उहेस छे. 'एएसिणं भंते! पुढविकाइयोग जाय तसकाइयाणं पज्जत्तग अपज्जत्तगाण य कयरे कयरे हिंतो अपावा ४' हे भगवन् मा पर्याप्तापर्यात पृथ्वी अयि है।, अच्छायि, तेरस्थायि, वायुअयि, वनस्पतिअयि ।, અને ત્રસકાયિકામાંથી કેાણ કાના કરતાં અલ્પ છે? કોણ કાના કરતાં વધારે છે ? કાણુ કાની ખરાખર છે? અને કાણુ કાનાથી વિશેષાધિક છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अलु उडे छे है-हे गौतम | 'सव्वत्थोवा तसकाइया पज्जत्तगा, तसकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा' पर्याप्त वसायिक व सौनी थोडा छ भने अपर्याप्त स
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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